Aarogya Anka

आयुर्वेद दुनिया का प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है Ιऐसा माना जाता है की बाद मे विकसित हुई अन्य चिकित्सा पद्धतियों मे इसी से प्रेरणा ली गई है Ιकिसी भी बीमारी को जड़ से खत्म करने के खासियत के कारण आज अधिकांश लोग आयुर्वेद के तरफ जा रहे हैΙइस लेख मे हम आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़ी हर एक रोग और उसके इलाज के बारे मे बताएंगे Ιआयुर्वेद चिकित्सा के साथ सभी प्रकार के जड़ी -बूटी के बारे मे तथा आयुर्वेद के 8 प्रकारों से हर तरह के रोगों के इलाज के बारे मे बताया गया हैΙ सभी पोस्टों को पढे ओर जानकारी अवश्य ले ताकि आप भी अपना जीवन आरोग्य के साथ healthy बना सके| thanks . 

कब्ज(Constipation)- कारण निवारण और कोष्ठबद्धता या विबन्ध)in hindi

सामान्यतः ग्रहण किये गये आहारके पाचन एवं अवशोषणके बाद अवशिष्ट पदार्थ (मल) शरीरसे बाहर निकल जाना चाहिये। यदि ऐसा नहीं हो तो अवरुद्ध मल कब्ज का कारण बन जाता है।

अव्यवस्थित तथा अनियमित आहार-विहारके परिणामस्वरूप आँतोंकी स्वाभाविक शक्ति नष्ट हो जाती है। वे दुर्बल हो जाती हैं और आहारके पाचन एवं मल विसर्जन दोनों ही कार्योंमें बाधा उत्पन्न हो जाती है। 

बड़ी आँतको साफ रखनेमें सहयोगी साग-सब्जी तथा फलोंका उपयोग न करना, अति अल्प उपयोग करना या विकृत करके उपयोग करना, आलू, धुली दालें, चर्बीयुक्त या मैदेके बने खाद्य पदार्थ बिस्किट, ब्रेड आदिका सेवन, पक्वान्न, मिठाई, चाय, कॉफी आदिका उपयोग, शारीरिक श्रमका अभाव, चिन्ता, भययुक्त जीवन, तिल्ली-लीवरका विकार, शौचकी प्रेरणाको रोकना, अति आहार, इन्द्रियसंयमका अभाव, पानीको कमी, भोजनमें जल्दबाजी, देरसे सोना तथा जागना, अप्राकृतिक, संश्लेषित तथा अपरिशोधित आहार ग्रहण करना-आदि क़ब्ज़ पैदा करनेवाले मुख्य हेतु हैं।

कब्ज(constipation)

*constipation(कब्ज) का लक्षण-

 मलत्यागमें कठिनाई, सिरदर्द, घबराहट, बेचैनी, पेटमें वायुका प्रकोप, अपच, भूख कम हो जाना, शरीरमें ठण्डकी अनुभूति, चक्कर आना, हमेशा थकानका अनुभव करना, सुस्ती, कमरदर्द, मुँहमें छालोंका पड़ना, कभी-कभी हृदयकी धड़कनमें अनियमितता आदि क़ब्ज़ के लक्षण हैं।

* कब्ज(constipation) के दुष्परिणाम -

प्रायः अधिकांश रोगोंका कारण आँतोंमें एकत्रित सड़ा मल है। इसमें स्त्रियोंमें होनेवाले मासिक धर्म-सम्बन्धी रोग, पुरुषोंमें स्वप्नदोषसे लेकर गम्भीर तथा घातक रोग गठिया, धमनीकाठिन्य तथा कालोनीक कैंसर आदि शामिल हैं।

* गलत किए गए उपचार से हानियाँ-

बड़ी आँतकी सफाईके लिये विरेचक दवाइयोंका प्रयोग लाभदायक होनेकी अपेक्षा हानिकारक अधिक है। ये विरेचक दवाइयाँ आँतकी मांसपेशियोंको कमजोर बना देती हैं तथा क़ब्ज़ पीछा नहीं छोड़ता।

*चिकित्सा*

1. रोगनिवारक आहार- 

(क) प्रातःकालीन हलके भोजनके रूपमें- मौसमी फल-जैसे अमरूद, खीरा, ककड़ी, नाशपाती, पपीता, खरबूजा इत्यादि अथवा अंकुरित मूँग तथा मौसमकी सब्जियों और सलादका सेवन करना चाहिये या बीस मुनक्का, तीन सूखी अंजीर, तीन खुरमानी रात्रिमें धोकर भिगोयी हुई प्रातः खाये और उसके पानीको नीबूरस मिलाकर पी ले।

(ख) दोपहर भोजन-मोटे आटेकी रोटी तथा एक पाव उबली हरी सब्जी एवं सलाद ले।

(ग) रात्रि-भोजन-मोटे आटेकी रोटी तथा एक पाव उबली हुई हरी सब्जी एवं फल (यदि सम्भव हो तो) ग्रहण करे।

2. यौगिक उपचार- 

व्यायाम तथा योगासनोंके यथोचित प्रयोगसे भी क़ब्ज को दूर किया जा सकता है।

3. आवश्यक सावधानियाँ तथा सुझाव-

 (क) शौचकी प्रेरणा या इच्छा न होनेपर भी प्रातःकाल उठते ही पानी पीकर शौच अवश्य जायें।

(ख) दिनभरमें दस-बारह गिलास पानी अवश्य पीयें। सुबह उठते ही, भोजनके आधा घंटे पहले, भोजनके दो घंटा बाद तथा शेष समयमें प्रत्येक घंटामें एक-एक गिलास पानी पीयें।

(ग) खूब अच्छी तरह चबाते हुए धीरे-धीरे शान्तिसे भोजन किया जाय। इसमें तीस-चालीस मिनट अवश्य लगना चाहिये।

(घ) आहार निर्धारित समयपर एवं उपयुक्त मात्रामें लिया जाय, जिससे अगले भोजनके समयमें स्वाभाविक भूख लगने लगे।

(ङ) क़ब्ज के साथ ही यदि उच्च रक्तचाप हो तो यौगिक आसनोंको न करे।

(च) भोजनके लिये गेहूँके बारीक आटे (मैदा) के बदले मोटा आटा (सूजीके आकारका) पिसवाये तथा दो-तीन घंटा पहले गुथवाकर रोटी बनवाये। इससे रेशाकी मात्रा छः गुना, विटामिन-बी चार गुना तथा खनिज पदार्थकी मात्रा चार गुनासे भी ज्यादा मिलती है। फलस्वरूप शरीरकी सफाई एवं रोगप्रतिरोधक क्षमता पैदा करनेमें सहयोग मिलता है। और क़ब्ज नहीं होने पाता।

*कब्ज(constipation) से बचे- सुख से रहें*

constipation

कब्ज होता, मल या. टट्टी साफ नहीं होना एक साधारण रोग है. पर यह सारे संसारमें फैला हुआ है। कब्त सभी रोगोंका मूल कारण है। इसके प्रति लापरवाही बरतनेसे नाना प्रकारके रोग हो जाते हैं। हमारे शास्त्रोंमें इस विषयमें लिखा गया है- ‘सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मलाः’ अर्थात् सभी रोगोंका कारण मलका कुपित होना ही है।

*कब्ज होनेका प्रधान कारण है-

अनुचित खान पान तथा रहन-सहन। इनके अतिरिक्त और भी कारण हैं. जैसे-शौचके वेगको रोकना, पानी कम पीना, शीघ्रतापूर्वक भोजन करना, समयपर भोजन नहीं करना, बिना पूरी तरह चबाये भोजन करना, भूखसे अधिक भोजन करना, गरिष्ठ भोजन करना, नींदकी कमी और मानसिक चिन्ता आदि।

क़ब्ज नहीं रहे इसके लिये पहला काम है सूर्योदयसे पहले उठकर एक-दो गिलास पानी पीना। इसे उषःपान कहते हैं। इसके बाद कुछ देर टहलना और शौच जाना, भोजन समयपर करना और खूब चबाकर करना क़ब्तियत दूर रखनेके लिये आवश्यक है। दोपहरके भोजनमें चोकरसहित आटेकी रोटी, हरी सब्जी, कच्चा सलाद और मट्ठा लेने चाहिये। तली-भुनी चीजें न खायें। मैदाकी बनी चीजें कभी न खायें। भोजन हलका, सुपाच्य और संतुलित हो इसका ध्यान रखे। 

तीसरे पहर कोई मौसमी फल खाना चाहिये। रातका भोजन सोनेके कम-से-कम दो घंटे पहले अवश्य कर ले। भोजन करते समय या भोजनके तुरंत बाद पानी न पिये। सोते समय एक गिलास गरम दूध पीना चाहिये। जिन्हें दूध हजम नहीं होता या सुलभ न हो, उन्हें एक गिलास पानी पीना चाहिये। इस प्रकारकी दिनचर्यासे ऋक्त नहीं होगा। कन्त न रहना सुखी जीवनका प्रथम सोपान है।

*कभी कब्ज  हो जाय तो उसे दूर करनेके कुछ उपाय यहाँ प्रस्तुत हैं, उन्हें काममें लिया जा सकता है-

बेल कब्ज का सबसे बड़ा शत्रु है। चैत्र, वैशाख और ज्येष्ठमें पके बेल आते हैं। जो पके बेलका सेवन करते हैं, उन्हें कब्ज कभी नहीं होता। अन्य महीनोंमें कच्चे बेलका मुरब्बा खाना चाहिये। वेलका गूदा पेटमें जाते ही आगे बढ़ने लगता है और आँतोंमें चिपके मलको धकेलकर मलाशयमें पहुँचा देता है। शौच महसूस होते ही मल सरलतासे बाहर निकल जाता है।

क़ब्जदूर करनेमें भुने चनेका सत्तू बहुत सहायक है। प्रातः सायं पचास ग्राम सत्तू पानीमें घोलकर पिये। गुलाब फूलकी पत्तियोंसे बना गुलकन्द पचीस ग्राम खाकर एक गिलास गरम दूध सोते समय पी ले – क़ब्ज़ दूर होगा।

क़ब्ज दूर करनेमें ईसबगोलकी भूसीकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एरण्डतेल (रेंड़ीका तेल) में सेंकी हुई छोटी हर्रेको महीन पीस ले और ईसबगोलकी भूसी बराबरमात्रामें डालकर मिला ले। इस मिश्रणको एक या दो चम्मचको मात्रामें मुँहमें डालकर ऊपरसे एक गिलास पानी पी ले। यह काम रात्रिमें सोते समय करे। प्रातः मल सुगमतासे बाहर निकल जायगा।

नित्य योगासन करे, क़ब्ज़ नहीं रहेगा। योगासनोंमें पश्चिमोत्तानासन, वज्रासन, उत्तानपादासन, जानुशिरासन और पवनमुक्तासन आदि क़ब्ज दूर करनेमें बड़े सहायक हैं।

*विबन्ध या कोष्ठबद्धता(koshthbadhta) *

भारतमें लोगोंकी मानसिकता भिन्न है। वे नित्य दो बार या तीन बार शौच जाना ही उचित मानते हैं और यदि उनका मलत्याग नियमितरूपसे सम्पन्न नहीं होता है तो वे रेचक दवाका सेवन करते हैं।

इस सम्बन्धमें जनमानसकी यह धारणा है कि यदि नित्य नियमितरूपसे दो या तीन बार मलका त्याग न होगा तो उन्हें अनेक कष्ट होंगे, भोजनमें अरुचि होगी, शरीर सुस्त रहेगा, पेट भारी रहेगा आदि-आदि। कभी-कभी तो मनुष्यमें यह विचार भी उठने लगता है कि नियमित शौच न होनेके कारण ही उन्हें अमुक रोग सता रहा है और शौच हो जानेसे उनका रोग ठीक हो जायगा, यद्यपि यह बात कुछ अंशमें ठीक है। परंतु आयुर्वेदमें एक सूत्र है कि-

मलायत्तं बलं पुंसां बलायत्तं हि जीवनम् ।

.अर्थात् मलके आश्रित शरीरका बल है और बलके आधारपर जीवन स्थित है। यदि मल (पुरीष, मूत्र, स्वेद) का क्षय होगा तो जीवन (जीवित रहनेका) – का क्षय होगा। इन मुख्य तीन मलोंके धारणसे शरीर शक्तिशाली होता है और यदि इनके धारणकी शक्तिका नाश होगा तो जीवनका भी सद्यः नाश हो जायगा। यथा विषूचिका-हैजा (CHOLERA) – में सद्यः मृत्युका होना मलक्षय ही कारण है।

आयुर्वेदमें दूसरा सूत्र है कि-

मलाभावाद् बलाभावो बलाभावादसुक्षयः ।

अर्थात् मलके क्षयसे बलका क्षय होगा और बलके क्षयसे प्राणका अन्त होगा।

*कारण- 

कब्ज का कारण पित्तकी विकृति है। पित्तकी उत्पत्तिकी मात्रा अल्प होनेसे भोजनका पाचन नहीं होता और भोजनके न पचनेपर भोजनमें आमत्व उत्पन्न होता है। आमयुक्त भोजनका उत्तम विश्लेषण नहीं होता और अविश्लेषित भोजन आँतोंमें चिपकता है. ग्रहणोंकी शक्तिको क्षीण करता है, आँतोंकी सामान्य गतिके अवरुद्ध हो जानेसे विबन्ध उत्पन्न होता है।

पित्तको मात्रामें अल्पताका कारण शरीरमें आलस्य या अरामतलबी है। आप जितना शारीरिक परिश्रम करेंगे, उसी अनुपातसे पित्तकी उत्पत्ति होगी। इस हेतु परिश्रम ऐसा होना चाहिये, जिसमें भरपूर पसीना आये और बास-प्रश्वास तेज हो। ऐसी क्रियासे रक्तकण (R.B.C) टूटते हैं और यकृत्‌में छनकर पित्तको बनाते हैं। यकृत् (Lever) – में पित्तकी मात्रा अधिक होनेपर यह स्वाभाविकरूपसे यकृत्से बाहर आकर भोजनको उत्तम प्रकारसे पचाता है। 

साबुनके रूपमें बना यह उत्तम पदार्थ आँतोंको इस तरह निर्मल कर देता है जैसे साबुन कपड़ेको साफ करता है। अतः आँतोंके लिये पित्त ही उत्तम साबुन है। बचपनमें परिश्रमकी क्रिया अधिक होती है, अतः बचपनमें क़ब्त कम होता है। यौवनावस्थामें परिश्रम कुछ शिथिल पड़ता है तो क़ब्त ज्यादा होता है और वृद्धावस्थामें परिश्रम अत्यन्त शिथिल होता है अतः क़ब्त बहुत अधिक होता है। जो व्यक्ति इस तथ्यको समझकर सामर्थ्यानुसार परिश्रम करते रहते हैं उनका जीवन सुखी रहता है।

परिश्रमके अतिरिक्त खट्टे भोज्य पदार्थ, सेंधा नमक और मिरचा, काली मिर्च यदि भोजनके साथ लिया जाय तो परिश्रमके गुणमें सोनेमें सुगन्ध जैसा लाभदायक होता है। कटु, अम्ल और लवणको आग्रेय कहा गया है।

कब्ज (constipation) के अन्य कारणोंमें कई रोग भी हैं। ज्वरकी अवस्थामें पाचनक्रियाका हास होता है, अतः आँतोंमें स्थित भोजन सूख कर क़ब्त पैदा करता है। पित्ताशय और पित्तवाहिनी शोथ (Holits, Holangitis), पाण्डु (Analmia), कामला (Jaundice) आदि यत्‌के रोगोंमें उग्र प्रकारका विबन्ध होता है। आवकृमि (Worms) और रक्तचापवृद्धि (High blood presure) आदिमें भी क़ब्ज  होता है।

पाचनसंस्थानमें मुखसे प्रारम्भ कर क्रमशः पेट, ग्रहणी, छोटी आँत, बड़ी आँत, मलाशय या गुदा आदिमें विकृतिके कारण उन अङ्गोंके सावमें ह्रास होता है तो भी क़ब्त उत्पन्न होता है।

*कब्ज के लक्षण- 

यदि एक दिन-रात बीतनेपर मलत्यागका वेग न हो तो उसे कब्ज कहा जा सकता है। इसके साथ अन्नमें अरुचि, उदरमें भारीपन, बार- बार अपानवायुका निकलना, मूत्रत्यागका बार-बार वेग होना इत्यादि क़ब्ज के लक्षण हैं। क़ब्ज  के कारण मनमें मलिनता रहती है। साहस तथा उत्साह नहीं होता। आलस्य होता है।

*निवारण- 

(1) सर्वप्रथम पाचनसंस्थानके प्रत्येक अङ्गपर ध्यान देना चाहिये। मुखमें दाँत स्वस्थ हैं और भोजनकी चर्वणक्रिया सामान्य है या नहीं। भोजनके उचित चर्वणसे भोजनमें लालास्रावका पर्याप्त मिश्रण होता है तो क़ब्ज  हीं होता। पर्याप्त चर्वण करनेसे भोजनमें लालास्त्रावकी क्षारीयता भोजनको जलीय घोलमें परिणत कर देती है और भोजन फलके रसके समान स्वादिष्ठ तथा सुपाच्य हो जाता है। क़ब्ज दूर करनेके लिये यह अत्यन्त आवश्यक है।पुनः आमाशयपर ध्यान देना चाहिये। भोजन आमाशयमें पाँच या छः घंटेमें पचता है। 

इस अवधिमें प्यास लगनेपर शुद्ध पेय जलको उबालकर गुनगुना पीना चाहिये। इसके अतिरिक्त छः घंटेतक कोई भी वस्तु कदापि नहीं खानी चाहिये। पान, चाय आदि भी क़ब्ज पैदा करते हैं। उदाहरणार्थ- आपने एक पात्रमें दाल पकानेको दालमें जल मिलाकर आगपर रखा। दाल पकनेमें लगभग दो घंटे समय लगते हैं, परंतु यदि पकती हुई उस दालके पात्रमें हर १५ मिनटपर बार-बार थोड़ी-थोड़ी दाल डालते जायेंगे तो पहलेकी दालके साथ मिलकर बार-बार डाली गयी दाल पहली दालको न पकने देगी और न आप पकेगी। पाक भ्रष्ट हो जायगा। 

उसी प्रकार पेट भी एक पात्र है, उसमें एक बार पकनेको रखे भोजनमें पाँच या छः घंटेके बीच जलके अतिरिक्त अन्य कुछ भी डालनेसे कब्ज होगा। आमत्व उत्पन्न होगा और पाक बिगड़ जायगा। अस्तु भोजन खूब चबा-चबाकर करना चाहिये और भोजनके बाद थोड़ी देर विश्राम करना चाहिये। लगभग छः घंटेतक उबले जलके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं लेना चाहिये। भोजनके पच जानेपर सामान्यतः सात या आठ घंटे बाद दूसरी बार भोजन करना चाहिये। भोजनके उपरान्त दिनमें शयन करना अनुचित है। इससे जुकाम- नजला होनेका डर रहता है।

 भोजनके बाद दिनमें आरामसे टहलते-घूमते अपना कार्य करनेवालेकी आयु लम्बी और रोगरहित होती है। रात्रिभोजन करनेके बाद प्रायः दो-तीन घण्टेतक शयन नहीं करना चाहिये। इस बीच टहलना-घूमना सर्वोत्तम है अथवा अपनी रुचिके अनुसार सद्‌ग्रन्थोंका अध्ययन करना चाहिये। रात्रिमें शयनकाल छः या सात घंटे होना चाहिये और प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व आसमानमें उषः किरणोंके फैलते समय घरसे बाहर शुद्ध वायुवाले खुले मैदानमें टहलना चाहिये। 

ऐसी मान्यता है कि प्रातःकाल शौचादिसे निवृत्त होकर सूर्योदयसे पूर्व एक घंटातक अपनी शक्तिके अनुसार तेजीसे खुली हवामें उत्तम पवित्र स्थान यथा नदीतट, उत्तम राजमार्ग या विस्तृत उपवन आदिमें टहलनेसे विबन्ध दूर होता है।

(2)क़ब्ज़ में लाभके लिये उपःपान करना चाहिये। व्यक्तिकी अपनी प्रकृतिके अनुसार अनुकूल पड़े तो यह भी कब्ज को दूर करता है। ताम्रपात्रमें रखा हुआ रात्रिका जल उषःकालमें इच्छानुसार शयनसे उठते ही शौचादिसे पूर्व लेनेकी विधि है।

(3) विवन्धका एक बड़ा कारण अजीर्ण है। अतः खूब जोरकी भूख लगनेपर ही भोजन करना चाहिये और तृप्तिसे पूर्व ही भोजन समाप्त करना चाहिये।

(4)  रात्रिमें शयनके पूर्व उबला हुआ गरम पानी पीनेसे विबन्ध दूर होता है।

(5) तेलरहित सूखे मेवे तथा किशमिश, मुनक्का, अंजीर, खजूर, छुहारा आदिका सेवन विबन्धनाशक है।

(6)  ताजे तुरंत तोड़कर मिलनेवाले सभी ऋतुफल आम, जामुन, अमरूद, सेब, अनार, सन्तरा, पपीता, मौसम्मी, नीबू, आँवला, केला, चीकू, शरीफा तथा बेल आदि फलोंको खानेसे कब्त नष्ट होता है। हफ्तोंतक तोड़कर रखे फल उचित लाभ प्रदान नहीं करते।

(7) ऋतुओंमें मिलनेवाली साग-सब्जियोंका प्रयोग करनेसे भी पाचन उत्तम होता है और कब्ज समाप्त हो जाता है।

(8)  कई घंटोंतक बैठकर लगातार कार्य करनेसे भी विबन्ध होता है, अतः एक घण्टा काम करनेके पश्चात् पाँच मिनटतक टहलना, घूमना और मन बहलानेसे मानसिक शक्ति बढ़ती है, कब्ज नहीं होता और अर्श, बवासीर (Piles) नहीं होते।

(9) योगासन तथा प्राणायाम विबन्ध नाश करनेमें आश्चर्यजनक लाभ करते हैं। आसनोंमें सर्पासन, धनुरासन, ताडासन, पद्मासन, बद्धपद्यासन, चक्रासन, सर्वाङ्गासन आदि उत्तम हैं। उत्तम स्थानपर बैठकर लम्बी गहरी श्वास अंदर लेने और बाहर निकालनेसे भी लाभ होता है।

(10) तनावकी स्थिति (Stress) में किया हुआ भोजन अजीर्ण पैदा करता है और पोषणके विपरीत कुपोषण, विषाक्तता उत्पन्न करता है। कहा भी है कि-

ईर्ष्याभयक्रोधपरीक्षितेन

लुब्धेन शुग्दैन्यनिपीडितेन। प्रद्वेषयुक्तेन च सेव्यमानं अन्नं न सम्यक्परिपाकमेति ।।

अर्थात् ईर्ष्या, भय, क्रोध, लोभ, शोक, दैन्य, प्रद्वेष आदि मानसिक तनावकी स्थितिमें किया भोजनका सम्यक् परिपाक (पाचन) नहीं होता।

(11) अन्तमें विबन्धकी दवाका प्रश्न होता है। आयुर्वेदशास्त्रमें क़ब्तके लिये शताधिक औषधियाँ हैं और इनके निर्माणका आधार वनस्पतियोंके दूध, जड़, छाल, पत्ते, फूल और फल हैं। प्राचीन कालमें इन द्रव्योंका कषाय (काढ़ा या जोशौदा) प्रातःकाल लिया वाता था। आधारभूत इन छः द्रव्योंमें लवणरसको छोड़कर बाकी पाँचों रसों- मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त, कषायका ग्रहण किया गया है। रोग और रोगीकी प्रकृतिके अनुसार इनके चार भेद किये गये हैं। सबसे मृदु प्रभाव और लाभ देनेवाले श्रेणीके द्रव्योंको अनुलोमन द्रव्य कहते हैं, इनमें उदाहरणस्वरूप हरीतकी (हरड़ या हरें छोटी या बड़ी) की गणना है। 

वाता था। आधारभूत इन छः द्रव्योंमें लवणरसको छोड़कर बाकी पाँचों रसों- मधुर, अम्ल, कटु, तिक्त, कषायका ग्रहण किया गया है। रोग और रोगीकी प्रकृतिके अनुसार इनके चार भेद किये गये हैं। सबसे मृदु प्रभाव और लाभ देनेवाले श्रेणीके द्रव्योंको अनुलोमन द्रव्य कहते हैं, इनमें उदाहरणस्वरूप हरीतकी (हरड़ या हरें छोटी या बड़ी) की गणना है। 

तदुपरान्त द्रव्य क्रमशः तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम कहलाते हैं। यथा तीव्र द्रव्यमें अमलतास फलका गूदा, तीव्रतरमें कुटकी और तीव्रतम (Brisk purge) में त्रिवृत (निशोथ) है। उदाहरणके लिये ऊपर प्रत्येक वर्गके एक-एक द्रव्य ही लिखे गये हैं, परंतु इन वर्गोंमेंसे प्रत्येक वर्गके द्रव्योंमें प्रायः दूध, जड़, छाल, पत्ते, फूल और फल हैं। अतः रोग और रोगीकी प्रकृतिके अनुसार किसी अनुभवी विद्वान् वैद्यसे परामर्श करके उनके निरीक्षण और निर्देशनमें क़ब्ज़ नष्ट करनेके लिये प्रयत्न करना चाहिये।

 प्राचीन महर्षियोंके मतसे यावत् जड़ी-बूटियोंमें दस्तावर गुण रहते हैं, परंतु चिकित्सक अपनी बुद्धि और युक्तिके अनुसार प्राप्य द्रव्यका प्रयोग कर क्रब्तको नष्ट कर देता है।

क़ब्ज  की उत्पत्तिका मुख्य कारण उदरमें रूक्षता (खुश्की) है और दस्तावर दवाके देनेसे प्रायः रूक्षता बढ़ती है। अस्तु, दस्तावर दवा देनेके पहले उदरको चिकना करना उचित है। आयुर्वेदके मतानुसार पुरुषको स्नेहसारवान् और उसके प्राणोंको स्नेहभूयिष्ठ कहा गया है, अतः पुरुषके सारे रोग स्नेहके द्वारा अच्छे किये जा सकते हैं, यथा- ‘स्नेहसारोऽयं पुरुषः प्राणाश्च स्नेहभूयिष्ठाः खेहसाध्याश्च भवन्ति।

इस दृष्टिसे कब्ज के रोगीको एक-दो या तीन दिनतक नित्य रात्रिमें एक (टेबल स्पून) चम्मच उत्तम प्रण्डका तेल (रेड़ीका तेल) थोड़े गरम दूधमें मिलाकर शयनके पूर्व लेकर शयन करना चाहिये। रात्रिमें जब जोरकी नींद आने लगे तब पीकर सोना चाहिये और कोष्ठ शुद्ध होनेपर विरेचनका प्रयोग करना चाहिये

*एक उत्तम योग-

एक उत्तम योग-बैतरा सोंठ, छोटी पिप्पली, हल्दी, वायविडंग, वच, छोटी हरड़ प्रत्येकका समभाग लेकर चूर्ण बना ले। चूर्णका 1/6 भाग नमक और सभी छः द्रव्योंके समान उत्तम गुड़ मिलाकर गोली बनावे और एक आँवलाकी मात्रामें शयनसे पूर्व नित्य रात्रिमें तीन दिन, पाँच दिन या सात दिनतक लेना चाहिये। दिनमें उत्तम यवसे निर्मित खाद्यका भोजन (एक बार) करना चाहिये।

अथवा हरे आँवले और मूंगके साथ जल और अल्पस्नेहसे पकाये हुए बिना नमकवाले भात (चावल)- को घृत मिलाकर दिनमें एक बार भोजन करना चाहिये।

*अन्य योग-

वर्तमान समयमें अगणित दस्तावर दवाइयोंका प्रचार किया जा रहा है, परंतु बिना समझे, प्रचारके आधारपर इनका प्रयोग हानिकर पाया जा रहा है। अस्तु, किसी भी दस्तावर दवाका प्रयोग प्रचारके आधारपर कदापि नहीं करना चाहिये, प्रत्युत किसी विद्वान् एवं अनुभवी चिकित्सकके परामर्शके अनुसार करना चाहिये। कुछ निरापद द्रव्योंमें ईसबगोलकी भूसी, चैती गुलाबकी पत्ती, अमलतास वृक्षके फूल, आँवलेका मधुर पाक, घृतकुमारीका गूदा, घीमें तलो छोटी हरे, रेड़ीके तेलमें तली छोटी हरड़े, मुनक्का, गरम पानी आदि हैं। महर्षि सुश्रुतकी निम्न उक्ति अक्षरशः सत्य प्रतीत होती है-

दीप्तान्तराग्निः परिशुद्धकोष्ठः 

प्रत्यग्रधातुर्बलवर्णयुक्तः

 दृढेन्द्रियो मन्दजरः शतायुः| 

स्नेहोपसेवी पुरुषो भवेत्तु ॥

अर्थात् स्नेहद्रव्योंका नित्य सेवन करनेवाले पुरुषकी जठराग्नि प्रबल रहती है, कोष्ठ शुद्ध रहता है, रसादि धातु, बल, वर्ण सदा नूतन रहते हैं, इन्द्रियाँ दृढ़ रहती हैं, बुढ़ापा देरमें आता है और आयु सौ  सालकी होती है।

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