Aarogya Anka

स्वस्थ जीवन आरोग्य अंक /आयुर्वेद के साथ

आयुर्वेद दुनिया का प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है Ιऐसा माना जाता है की बाद मे विकसित हुई अन्य चिकित्सा पद्धतियों मे इसी से प्रेरणा ली गई है Ιकिसी भी बीमारी को जड़ से खत्म करने के खासियत के कारण आज अधिकांश लोग आयुर्वेद के तरफ जा रहे हैΙइस लेख मे हम आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़ी हर एक रोग और उसके इलाज के बारे मे बताएंगे Ιआयुर्वेद चिकित्सा के साथ सभी प्रकार के जड़ी -बूटी के बारे मे तथा आयुर्वेद के 8 प्रकारों से हर तरह के रोगों के इलाज के बारे मे बताया गया हैΙ सभी पोस्टों को पढे ओर जानकारी अवश्य ले ताकि आप भी अपना जीवन आरोग्य के साथ healthy बना सके| thanks . 

गव्य पदार्थों के गुण और रोगनाश के लिए उनका उपयोग

गव्य पदार्थों(दूध,दही,मक्खन,छाछ,घी,गोमूत्र और गाय का गोबर )-

1. गाय का दूध-

पंचगव्य

गायका दूध स्वादिष्ट, रुचिकर, स्निग्ध, बलकारक, अतिपथ्य, कान्तिप्रदः बुद्धि, प्रज्ञा, मेधा, कफ, तुष्टि, पुष्टि, वीर्य और शुक्रको बढ़ानेवाला; आयुको दृढ़ करनेवाला; हृद्य, रसायन, गुरु, पुरुषत्व प्रदान करनेवाला और नमकीन होता है। वात, पित्त, विष, वातरक्त, दाह, रक्तपित्त, अतिसार, उदावर्त, भ्रम, कास, मद, श्वास, मनोव्यथा, जीर्णज्वर, हृद्रोग, पिपासा, उदर, अपस्मार, मूत्रकृच्छ्र, गुल्म, अर्श, प्रवाहिका, पाण्डु, शूल, अम्लपित्त, क्षयरोग, अतिश्रम विषमाग्नि, गर्भपात, योनिरोग और वातरोगका नाश करता है।

काली गायका दूध विशेष करके वातका नाश करता है। लाल और चितकबरी गायका दूध विशेषकर पित्तका नाश करता है। पीली गायका दूध वात-पित्तका नाश करता है। श्वेत (धौरी) गायका दूध कफकारक होता है। मरे हुए बछड़ेवाली तथा तुरंतके बछड़ेवाली गायका दूध त्रिदोषकारक होता है। बाखड़ी गायका दूध गाढ़ा, बलवर्धक, तृप्तिकारक और त्रिदोषनाशक होता है। 

खली और भुना हुआ दाना खानेवाली गायका दूध कफकारक होता है। बिनौला, घास, पत्ती आदि खानेवाली गायका दूध सब रोगोंके लिये हितकर है।. जवान गायका दूध मधुर, रसायन और त्रिदोषनाशक है। बूढ़ी गायका दूध दुर्बल और गाभिन गायका तीन महीनेके बादका दूध पित्तकारक, खरास लिये हुए मधुर नाशके लिये उनका उपयोग और शोषण करनेवाला होता है। पहली बार ब्यायी हुई गायका दूध निःसार और गुणहीन होता है।

नयी ब्यायी हुई गायका दूध रूखा, दाहकारक और रक्तदोषकारक तथा पित्तकारक होता है। ब्यानेके अधिक दिन बाद गायका दूध मधुर दाहकारक और खट्टा होता है। तुरंतका दुहा हुआ धारोष्ण दूध वृष्य, धातुवर्धक, निद्राकारक, कान्तिप्रद, पथ्य, स्वादिष्ट, अग्नि प्रदीप्त करनेवाला, अमृतसदृश और सर्वरोगनाशक होता है। 

ठंडा दूध (दुहनेके एक पहर बाद) त्रिदोषकारक होता है, गरम पित्तनाशक होता है। उबाले हुए दूधको पीनेसे कफका नाश होता है और बिना गरम किया हुआ ठंडा दूध बलवर्धक, वृष्य, दोषोत्पादक, अपाचक और मलस्तम्भक होता है। प्रातःकाल गायका दूध, शक्कर डालकर पीनेसे हितकारक होता है।

दूध मलाई-

शीतल, स्निग्ध, वृष्य, बलकारक, शुक्रप्रद, तृप्तिकर, रुचिकर, कफवर्धक और धातुवर्धक है तथा पित्त, वायु, रक्तपित्त, दाह और रक्तरोगोंका नाश करती है।

गव्य पदार्थ गाय के दूध के औषधीय उपयोग-

1. आधासीसी मे-

गाय के दूधका खोआ खाना या गायके दूधमें बादामके टुकड़े डालकर बनायी हुई खीरमें शक्कर डालकर पिलाना चाहिये।

2. धतूरा अथवा कनेर के विष पर-

पावभर दूधमें एक तोला शक्कर डालकर पिलाना चाहिये।

3. संखिया, तृतिया, बछनाग, मुर्दासंख इत्यादिके विषपर-

जबतक उलटी न हो जाय तबतक दूध या दूधमें शक्कर डालकर पिलाना चाहिये।

4. मैनसिलके विषपर-

दूधमें मधु डालकर तीन दिन पिलाना चाहिये।

5. कोदोंके विषपर-

ठंडा दूध पिलाना चाहिये|

6. काँचका चूर्ण-

यह यदि अन्नके साथ पेटमें चला गया हो तो ऊपरसे दूध पिलाना चाहिये।

7. गन्धकके विषपर-

दूधमें घी डालकर पिलाना चाहिये।

8. पुष्टि, बल और वीर्यकी वृद्धिके लिये-

गरम किये हुए दूधमें गायका घी और शक्कर डालकर पिलाना चाहिये। इसके जैसा पथ्य, तेजोवर्धक और बलवर्धक प्रयोग दूसरा कोई नहीं है।

9. जीर्ण ज्वरपर-

दूधमें गायका घी, सोंठ, छुहारा और काली दाख डालकर उसे आगपर उबालकर पिलाना चाहिये।

10. मूत्रकृच्छ्र और मधुमेहपर-

दूधमें गुड़ अथवा घी डालकर उसे थोड़ा गरम करके पिलाना अथवा गरम किया हुआ दूध घीके साथ बराबर शक्कर डालकर पिलाना चाहिये।

11. आँख उठी होनेपर या जलन होनेपर-

गायके दूधमें रूईको भिगोकर और उसके ऊपर फिटकिरीका चूर्ण डालकर आँखके ऊपर पट्टी बाँध देनी चाहिये।

12. पुष्टिके लिये-

गायका दूध घी और मधु मिलाकर पिलाना चाहिये।

13. पित्त-विकारके ऊपर-

सात तोला दूध लेकर उसमें आधा तोलासे एक तोलातक सोंठ उबालकर खोआ बनाये, उसमें शक्कर डालकर गोली बना ले और रातको सोनेके पहले प्रतिदिन खिलाये। खानेके बाद पानी न पीने दे। इस प्रकार कुछ अधिक दिनोंतक इसका सेवन कराना चाहिये।

14. चेचक अथवा छोटी माता होनेके कारण बालकके शरीरमें आनेवाले ज्वरके ऊपर-

 तुरंत दुहे हुए दूध और घीको मिलाकर मिस्त्री डालकर पिलाये।

15. छाती तथा हृदयरोगपर- 

दूधमें शुद्ध भिलावेका तेल 10 बूँदतक डालकर पिलाना चाहिये।

16. रक्तपित्तके ऊपर –

दूधमें पाँचगुना पानी डालकर अच्छी तरह उबाले और सारा पानी जल जानेके बाद दूध पिला दे।

17.  हड्डी टूटनेपर- 

प्रातःकाल बाखड़ी (व्यानेके बाद लगभग 6-7-8 महीने दूध दे चुकनेवाली) गायका दूध शक्कर डालकर गरम करे। उसमें घी और लाखका चूर्ण डालकर ठंडा होनेपर पिलाये, इससे टूटी हड्डी ठीक हो जाती है|

18.  कफपर-

गर्म दूधमें मिश्री और काली मिर्चका चूर्ण डालकर पिलाना चाहिये।

19. सिरके रक्तज और पित्तज रोगोंपर –

रूईकी मोटी तह करके गायके दूधमें भिगोकर सिरके ऊपर रखे, उसके ऊपर पट्टी बाँध दे और बारंबार दूध देता रहे। इस प्रकार सबेरेसे शामतक रखे। शामको सिर धोकर मक्खन लगाये- इस प्रकार 2-3 दिनोंतक करे।

20. प्रवाहिका और रक्त-पित्तादिके ऊपर- 

आधा दूध और आधा पानी मिलाकर उबाले, जब पानी जल जाय तो बचे दूधका उपयोग शूल, प्रवाहिका और रक्तपित्तरोगके ऊपर करे।

21. पाण्डुरोग, क्षय और संग्रहणीके ऊपर-

लोहेके वर्तनमें गरम किया हुआ दूध सात दिन पिलाना और पथ्य सेवन कराना चाहिये।

22. हिचकीके ऊपर-

औटाया हुआ दूध पिलाना चाहिये।

23. मूत्रावरोधसे हुए उदावर्त वायुके ऊपर-

दूध और पानी एक साथ मिलाकर पिलाना चाहिये।

24. मेहनत करके थके हुए- 

मनुष्यको दूध गरम करके पिलाये; इससे थकावट दूर हो जायगी और स्फूर्ति आ जायगी। थकावटके लिये यह अद्वितीय ओषधि है।

25. सिरदर्दके ऊपर-

गायके दूधमें सोंठ घिसकर सिरपर उसका लेप करे और ऊपरसे रूई बाँध दे। इस प्रकार सात-आठ घंटेमें भयंकरसे भी भयंकर सिरदर्द दूर हो जाता है।

2. गव्य पदार्थ गाय का दही-

पंचगव्य(गाय का दही गव्य पदार्थ)

गायका दही स्वादिष्ट, बलवर्धक, रुचिकर, तेजस्वी, दीपन, पौष्टिक, मीठा, ग्राह्य, ठंडा और वातजन्य अर्श (बवासीर) का नाश करनेवाला है। दही – मन्द, स्वादिष्ट, स्वाद्वम्ल, (स्वादिष्ट खट्टा), खट्टा और

अतिखट्टा-पाँच प्रकारका होता है। मन्द दही भारी, स्वादिष्ट दूधके समान मूत्रकारक, सारक, दाहक और त्रिदोषनाशक है। स्वादिष्ट दही भी भारी, मीठा, वृष्य, पाक-कालमें मधुर, अभिष्यन्दकारक, मेद, वायु और कफका नाश करनेवाला, रक्त शुद्ध करनेवाला और पित्तको शमन करनेवाला है।

 स्वादिष्ट (स्वाद्वम्ल) खट्टा दही भारी, मीठा, किचित् खट्टा और तुर्श होता है। दूसरे गुण स्वादिष्ट दहीके ही समान हैं। खट्टा दही रक्त, पित्त और कफ बढ़ानेवाला और दीपन है। अत्यन्त खट्टा दही दीपन, गलेमें दाह करनेवाला, रोंगटे खड़ा करनेवाला, रक्तपित्त पैदा करनेवाला और दाँतके लिये हानिकारक है।

औटे हुए दूधका दही शीतल, लघु विष्टम्भकारक, वातकारक, दीपन, मधुर, रुचिकर और थोड़ा पित्तकारक होता है। आँटाकर मलाई निकाले हुए दूधका दही ठंडा, लघु विष्टम्भकारक, वातकारक, ग्राह्य, दीपन, मधुर, रुचिकर और थोड़ा पित्तकारक होता है। शक्कर मिला हुआ दही खानेसे पित्त, दाह, तृषा और रक्तदोषका नाश होता है। गुड़ मिला हुआ दही तृप्तिकर, धातुवर्धक, गुरु और वातका नाश करनेवाला होता है।

 दहीका निचोड़ा हुआ पानी बल बढ़ानेवाला, तुर्श, पित्तकारक, सारक, गरम, रुचिकर, खट्टा, लघु, स्त्रोतशोधक और प्लीहोदर, तृषा, कफकी बवासीर, वायु, विष्टम्भ, पाण्डुरोग, शूल और श्वासरोगका नाश करनेवाला है। दहीके ऊपरका जल सारक, गुरु और रक्तपित्त, कफ और वीर्यको बढ़ानेवाला और जठराग्निको मन्द करनेवाला तथा वात- नाशक है। दूसरे गुण दूध-जैसे ही हैं।

                                गायके दहीका उपयोग-

1. अजीर्णजनित विषूचिकापर-

गायका दही या छाछ समान भाग पानी डालकर पिलाये।

2. यदि काँचका चूर्ण अनाजके साथ खाया गया हो तो गायका दही पिलाये।

3. तृष्णारोगके ऊपर-

पुरानी ईंट साफ धोकर आगमें डाले, खूब लाल हो जाय तबतक गरम करे, फिर उसे गायके दहीमें डाल दे और उस दहीको थोड़ा-थोड़ा खिलाये।

4. कनेरके विषपर-

गायका दही शक्कर डालकर पिलाये।

5. सूर्यावर्त (आधासीसी) रोगपर – 

सूर्योदय होनेके पहले दही और भात तीन दिनतक खिलाये।

6. तृष्णारोगपर-

गायका मधुर दही 128 भाग, शक्कर 64 भाग, घी 5 भाग, मधु 3 भाग, काली मिर्चका चूर्ण 2 भाग, सोंठका चूर्ण 2 भाग, इलायची 2 भाग-ये सब चीजें एक साथ कलई किये हुए बर्तनमें मिलाकर रख दे और उसमेंसे थोड़ा-थोड़ा खिलाये। दूसरा प्रकार यह है कि दहीका तमाम पानी वस्त्रसे छानकर उसमें शक्कर वगैरह सव मसाले डालकर घोलकर पिलाये। इसे श्रीखण्ड कहते हैं। यह तृषा, दाह और पित्तनाशक तथा मधुर होता है।

7. सर्पके विषके ऊपर-

दही, मधु और मक्खन- इन तीनोंको तीन-तीन तोला ले तथा पीपल, सोंठ, काली मिर्च, बच और सेंधा नमक समभाग लेकर बारीक चूर्ण बनाकर वस्त्रसे छान ले। यह चूर्ण तीन तोला लेकर बारह तोले मिश्रण तैयार करे। उसमेंसे चार तोला पिलाये। एक मिनटके बाद वमन और विरेचन न हो तो फिर दूसरी बार दे। जरूरत पड़े तो तीसरी बार भी पिलाये।

 इस प्रकार तीन मात्रा लेनेपर अवश्य ही वमन-विरेचन होकर रोगसे मुक्ति मिलेगी। काष्ठौषधि नयी होनी चाहिये। नयी वनस्पति हो तो शास्त्रकार लिखते हैं कि तक्षक, वासुकी या उससे भी बलवान् सर्पका विष इस औषधिसे दूर हो जाता है। सर्प काटनेके बाद तुरंत ही दवा देनी चाहिये।

8. सूजन, व्रणकी तीक्ष्ण पीडा और दाहके ऊपर-

दहीको कपड़ेमें बाँधकर पानी निकालकर उसे दर्दवाली जगहपर बाँधनेसे दर्द दूर होता है, शूल तथा दाह मिट जाता है, निकलता हुआ फोड़ा बैठ जाता है और निकला हुआ फोड़ा फटकर भर जाता है।

3. गव्य पदार्थ गाय का मक्खन-

गायका मक्खन शीतल, धातुवर्धक, वृष्य, कान्ति बढ़ानेवाला, ग्राह्य, वलप्रद, वालक और वृद्धके लिये ठोस, रुचिकर, मधुर, सुखकारक, आँखकी ज्योति बढ़ानेवाला, पुष्टिकारक, वात, पित्त, कफ, अर्श, क्षय, रक्त-विकार, सर्वाङ्गशूल, थकावट और तन्द्राका नाश करता है। ठण्डा मक्खन-बल बढ़ानेवाला, वीर्यकारक,भारी, कफ करनेवाला, मेदाको बढ़ानेवाला, आँखोंके लिये हितकर, धातुवर्धक, अप्रिय, अनभिष्यन्दी तथा दो-तीन दिनोंका हो तो खारा, खट्टा, तीखा और वान्ति, अर्श, कोढ़-इन दोषोंके सिवा नेत्ररोग और दूसरे सब रोगोंका नाश करनेवाला होता है।

गाय के मक्खन का उपयोग-

1. क्षयका नाश करके शक्ति देनेके लिये- 

गायका मक्खन, मिश्री, मधु और सोनेका वर्क सबको एकत्र करके खिलाये।

2. आँखोंके दाहपर-

मक्खन आँखोंके ऊपर चुपड़ दे।

3. शरीरमें मन्दज्वर होनेपर- 

मक्खन और मिश्री खिलाये।

4. शीतला अथवा छोटी माताके कारण लड़कोंके मन्दज्वरके ऊपर-

गायका मक्खन और मिश्री मिलाकर उसमें जीरेका चूर्ण डाले और छोटी सुपारीके बराबर गोली बनाकर प्रतिदिन सबेरे खिलाये।

5. कानमें बहुत जलन होनेपर- 

गायका मक्खन थोड़ा गरम करके कानमें डाल दे।

6. भिलावा आदि उड़कर आँखमें पड़ जानेपर-

गायका मक्खन लगा दे। भिलावेके कारण शरीरमें दाह उत्पन्न होता हो तो मक्खन पुष्कल परिमाणमें खिलाये।

7. कनेरके विषपर-

 गायका मक्खन थोड़ा उष्ण करके खिलाये।

8. रक्तातिसारपर –

 मक्खनमें मधु और मिश्री डालकर खिलाये।

9. अर्श-व्याधिपर- 

मक्खन और तिल खिलाये।

4. गव्य पदार्थ गाय के छाछ-

गायकी छाछ जठराग्निको प्रदीप्त करनेवाली और त्रिदोष तथा अर्शका नाश करनेवाली होती है। साधारण छाछ स्वादिष्ट, ग्राही, खट्टी, तुर्श, लघु, गरम, पाकके समय मधुर, तीखी, रूखी, अवृष्य, बलप्रद, तृप्तिकर, हृदयको विकसित करनेवाली, रुचिकारक और शरीरको कृश बनानेवाली होती है तथा प्रमेह, मेद, अर्श, पाण्डु, संग्रहणी, मलस्तम्भ, अतिसार, अरुचि, भगंदर, उदर, प्लीहा, गुल्म, सूजन, कफ, कोढ़, कृमि, पसीना, घीका अजीर्ण, वायु, त्रिदोष, विषमज्वर और शूलका नाश करती है। 

छाछ मधुरपाकी होती है, इससे पित्तका कोप नहीं करती। रूखी गर्म और तुर्श होती है, इसलिये कफका नाश करती है। खट्टी और मधुर होती है, इसलिये वातका नाश करती है। मधुर छाछ कफ करनेवाली और वात-पित्तनाशक होती है।

खट्टी छाछ रक्तपित्त और कृमिका नाश करती है। खट्टी छाछ मीठेके साथ पीनेसे वायुका नाश करती है। मोठी छाछ शक्करके साथ पीनेसे पित्तका नाश होता है। मीठी छाछ नमक, सोंठ, काली मिर्च और पीपलके साथ मिलाकर पीनेसे रूक्षता और कफका नाश करती है। पेटमें वायु हो तो पीपल और नमक डालकर मीठी छाछ पीनेसे वायुका नाश होता है।

 पित्तके रोगीको शक्कर और काली मिर्च मिलाकर मीठी छाछ दे। मक्खनवाली छाछ तन्द्रा तथा शरीरमें जडता पैदा करनेवाली और भारी होती है। मक्खन निकाली हुई छाछ लघु और पथ्य करनेवाली होती है। घोल (पानी डालकर हिलाया हुआ दहीका मट्ठा) उष्ण और त्रिदोषनाशक होता है।

गाय के छाछ का उपयोग-

1. कफोदरके ऊपर-

त्रिकटु, अजवाइन, जीरा और सैन्धव नमक डालकर छाछ पिलाये। त्रिकटु, सैन्धव नमक जवखार वगैरह डालकर छाछको संनिपातोदरमें देना चाहिये। क्षय, दौर्बल्य, मूर्च्छा, भ्रम, दाह तथा रक्तपित्तमें कभी छाछ नहीं पिलानी चाहिये।

2. दाहके ऊपर-

गायकी छाछमें कपड़ा भिगोकर उससे रोगीके शरीरका स्पर्श कराता रहे, इससे दाहका नाश हो जाता है।

3. संग्रहणी, अतिसार और अर्शके ऊपर- 

छाछ पिलाये; इससे शरीरका रक्त शुद्ध होकर रस, बल, पुष्टि और वर्ण सरस होता है तथा वात और कफके दोषोंका शमन होता है। छाछ-कल्प (40 दिनोंतक केवल छाछपर रहे) करानेसे कठिन से कठिन संग्रहणी और उदररोग मिट जाते हैं।

4. कोष्ठबद्धताके ऊपर- 

अजवाइन और विड नमक डालकर छाछ पिलाये।

5. अर्शके ऊपर-

चित्रमूलकी छाल पीसकर उसके रसको एक बर्तनमें डाले, उसमें गायका दही या छाछ डालकर पिलाये अथवा सोंठ, काली मिर्च, विड नमक और छोटी पीपल डालकर गायकी छाछ पिलाये।

6. संग्रहणीके ऊपर-

गायकी छाछमें एक तोला सफेद मुसली पीसकर पिलाये और छाछ-भातका पथ्य दे अथवा गायकी छाछमें सोंठ और छोटी पीपलका चूर्ण डालकर पिलाये। संग्रहणी रोगके लिये छाछ दीपन, ग्राह्य और लघु होती है तथा बहुत ही लाभदायक है।

7. मूंगफली खाकर छाछ पी लेनेपर- 

कोई नुकसान नहीं होता तथा उससे होनेवाले अजीर्णके लिये भी छाछ लाभदायक होती है।

5. गव्य पदार्थ गाय का घी-

गायका घी रस और पाकमें स्वादिष्ट, शीतल, भारी, जठराग्निको प्रदीप्त करनेवाला, स्निग्ध, सुगन्धित, रसायन, रुचिकर, नेत्रोंकी ज्योति बढ़ानेवाला, कान्तिकारक, वृष्य और मेधा, लावण्य, तेज तथा बल देनेवाला, आयुप्रद, बुद्धिवर्धक, शुक्रवर्धक, स्वरकारक, हृद्य, मनुष्यके लिये हितकारक और बाल, वृद्ध तथा क्षतक्षीणके लिये ठोस और अग्निदग्ध व्रण, शस्त्रक्षत, वात, पित्त, कफ, दम, विष तथा त्रिदोषका नाश करता है। 

सतत ज्वरके लिये हितकारक और आम ज्वरवालेके लिये विष-समान है। मक्खनमेंसे ताजा निकाला हुआ घी तृप्तिकारक, दुर्बल मनुष्यके लिये हितकारक और भोजनमें स्वादिष्ट होता है। नेत्ररोग, पाण्डु और कामलाके लिये प्रशस्त है।

हैजा, अग्निमान्द्य, बाल, वृद्ध, क्षयरोग, आमव्याधि, कफरोग, मदात्यय, कोष्ठबद्धता और ज्वरमें घी कम ही देना चाहिये। पुराना घी तीक्ष्ण, सारक, खट्टा, लघु, तीखा, उष्ण वीर्य, वर्णकारक, छेदक, सुननेकी शक्ति बढ़ानेवाला, अग्निदीपक, घ्राणसंशोधक, व्रणको सुखानेवाला और गुल्म, योनिरोग, मस्तकरोग, नेत्ररोग, कर्णरोग, सूजन, अपस्मार, मद, मूर्च्छा, ज्वर, श्वास, खाँसी, संग्रहणी, अर्श, श्लेष्म, कोढ़, उन्माद, कृमि, विष-अलक्ष्मी और त्रिदोषका नाश करता है। 

यह वस्तिकर्म और नस्यमें प्रशस्त है। दस वर्षका पुराना घी ‘जीर्ण’, एक सौ वर्षसे एक हजार वर्षका ‘कौम्भ’ और ग्यारह सौ वर्षके ऊपरका ‘महाघृत’ कहलाता है। यह जितना ही पुराना होता जाता है, उतना ही इसका गुण अधिक बढ़ता जाता है। सौ बार धोया हुआ घी घाव, दाह, मोह और ज्वरका नाश करता है। धीमें दूसरे गुण दूध-जैसे होते हैं।

गायके घीको धोये बिना फोड़े आदि चर्मरोगोंपर लगानेसे जहरके समान असर होता है, वैसे ही धोये हुए घीको खानेसे विषवत् असर होता है। यानी फोड़ेपर धोया हुआ भी लगाना चाहिये, पर धोया हुआ घी कभी खाना नहीं चाहिये। ज्वर, कोष्ठबद्धता, विषूचिका, अरुचि, मन्दाग्नि और मदात्यय रोगमें नया घी अपकारी होता है। पुराना घी यदि एक वर्षसे ऊपरका हो तो मूर्च्छा, मूत्रकृच्छ्र, उन्माद, कर्णशूल, नेत्रशूल, शोथ, अर्श, व्रण और योनिदोष इत्यादि रोगोंमें विशेष हितकारी है।

गाय के घी का उपयोग-

1. आधासीसीके ऊपर-

गायका अच्छा घी सबेरे- शाम नाकमें डाले, इससे सात दिनमें आधासीसी बिलकुल दूर हो जायगी अथवा प्रातःकाल सूर्योदयसे पूर्व एक तोला गायका घी और एक तोला मिस्त्री मिलाकर तीन दिनतक खिलाये तो निश्चय ही आराम होता है।

2. नाकसे खून गिरनेपर- 

गायका अच्छा घी नाकमें डाले।

3. पित्त सिरमें चढ़ जानेपर-

 अच्छा घी माथेपर चुपड़ दे, इससे चढ़ा हुआ पित्त तत्काल उतर जाता है।

4. हाथ-पैरमें दाह होनेपर-

 गायका अच्छा घी चुपड़ दे।

5. ज्वरके कारण शरीरमें अत्यन्त दाह होनेपर – 

घीको एक सौ या एक हजार बार धोकर शरीरपर लेप करे।

6. धतूरा अथवा रसकपूरके विषके ऊपर-

 गायका घी खूब पिलाये।

7. शराबका नशा उतारनेके लिये- 

दो तोला घी और दो तोला शक्कर मिलाकर खिलाये।

8. गर्भिणीके रक्तस्त्रावके ऊपर-

 एक सौ बार धोया हुआ घी शरीरपर लेप करे।

9. चौथिया ज्वर, उन्माद और अपस्मारपर- 

गायका घी, दही, दूध और गोबरका रस इनमें घीको सिद्ध करके पिलाये।

10. जले हुए शरीरपर-

गायके धोये हुए घीका लेप करे।

11. सिरदर्दके ऊपर-

गायका दूध और घी इकट्ठा करके अञ्जन करे। इससे नेत्रकी शिराएँ लाल हो जाती हैं और रोग चला जाता है।

12. बालकोंकी छातीमें कफ जम जानेपर- 

गायका पुराना घी छातीपर लगाकर उसे मालिश करे।

13. शरीरमें गरमी होनेसे रक्त खराब होकर –

 शरीरके ऊपर ताँबेके रंगके काले चकत्ते हो जायँ और उनकी गाँठ शरीरके ऊपर निकल आये तब पहले जोंकसे रक्त निकलवा दे, पीछे पीतलके बर्तनमें गायका घी दस तोला अथवा आधा गाय और आधा बकरीका घी लेकर उसमें पानी डालकर हाथसे खूब फेंटे और वह पानी निकालकर दूसरा पानी डाले। इस प्रकार एक सौ बार पानीसे धोये।

 उसमें ढ़ाई तोला फुलायी हुई फिटकिरीका चूर्ण डालकर घोंटे और उसे एक मिट्टीके बर्तनमें रखे। इसे नित्य सोते समय गाँठ बने हुए सब स्थानोंपर लेप करनेसे शरीरमें जमी हुई गरमी कम हो जाती है, कुछ ही दिनोंमें शरीरसे दाह मिट जाता है, रक्त शुद्ध हो जाता है और यह दुष्ट रोग नष्ट हो जाता है।

14. तृष्णा-रोगके ऊपर-

 घी और दूध मिलाकर पिलाये।

15. दाहके ऊपर-

एक सौसे एक हजार बार धोये हुए घीको शरीरपर चुपड़े।

16. हिचकीपर –

 गायका घी पिलाये।

17. संनिपातज विसर्पके ऊपर- 

एक सौ बार धोये हुए घीका बारंबार लेप करे।

18. गरमीके ऊपर-

गायके घीमें सीपका भस्म डालकर उसे खरल करके लेप करे।

19. सर्पके विषके ऊपर – 

पहले बीससे चालीस तोला घी पीये, उसके पंद्रह मिनटके बाद थोड़ा उष्ण जल जितना पी सके उतना पीये। इससे उलटी और दस्त होकर विषका शमन हो जाता है। जरूरत हो तो दूसरे समय भी घी और पानी पिये।

6. गव्य पदार्थ गोमूत्र-

पंचगव्य पदार्थ गोमूत्र

गौका मूत्र तुर्श, कड़वा, तीखा, लघु, खारा, गरम, तीक्ष्ण, पाचन, अग्निदीपन, भेदक, पित्तकारक, मेधाप्रद,किञ्चित् मधुर, सारक और बुद्धिवर्धक होता है तथा कफ, वायु, कुष्ठ, गुल्म, उदर, पाण्डु, चित्री, शूल, अर्श, कण्डु, दमा, आम, भ्रम, ज्वर, आनाह वायु, खाँसी, मलस्तम्भ, सूजन, मुखरोग, नेत्ररोग, त्वचारोग, स्त्रियोंका अतिसार और मूत्ररोग- इन सबका नाश करता है। सब मूत्रोंकी अपेक्षा गोमूत्रमें अधिक गुण होते हैं।

गोमूत्र का उपयोग-

1. कफरोगपर –

केवल गोमूत्र पिलाये।

2. रेचनके लिये-

 जितनी बार रेचन देना हो, उतनी बार गोमूत्र कपड़ेमें निचोड़कर पिलाना चाहिये।

3. उदररोग और भारपर- 

गोमूत्रमें शक्कर और नमक महीन पीसकर समभाग डालकर पिलाये अथवा गोमूत्रमें सेंधा नमक और राईका चूर्ण डालकर पिलाना चाहिये।

4. वराध (बच्चोंके उदररोग) पर-

 गोमूत्र दो वक्त लेकर उसमें हल्दी डालकर पिलाये।

5. उदररोग और बच्चोंके पेटके आफरे या डब्बेपर –

गोमूत्र चार तोला लेकर उसमें नारियलकी गिरी पैसाभर और खरवत (फल्गु) का सूखा पत्ता पैसाभर घिस करके पिलाये, इससे पेटके सब रोग अलग होकर मलद्वारसे निकल जाते हैं। बालकोंको यह औषधि 1/4 और 1/8 प्रमाणमें दे।

6. पाण्डुरोगपर- 

प्रतिदिन सबेरे शक्तिके अनुसार गोमूत्र वस्त्रसे छानकर रोगके न्यूनाधिक जोरके अनुसार इक्कीस या बयालीस दिनतक सेवन कराये।

7. कान बहनेपर-

गरम गोमूत्रसे कान धोये।

8. स्त्रियोंके प्रसूतिरोग होनेपर- 

किसी कारणसे गर्भाशयमें गाँठ हो गयी हो अथवा शरीरमें सूजन आ गया हो तो गोमूत्र प्रतिदिन दिनमें दो बार चार-चार तोला पिलाये।

9. जीर्णज्वर, पाण्डु तथा सूजनके ऊपर-

गोमूत्र चिरायतेके फान्टमें मिलाकर सात दिनतक दिनमें दो बार पिलाये।

10. उदररोगपर-

गोमूत्रका क्षार एक मासा दिनमें दो वक्त घीके साथ दे। इससे पुराना उदररोग भी निश्चयपूर्वक दूर हो जायगा।

11. मूत्रकृच्छ्रके ऊपर-

रोज सबेरे दो तोला गोमूत्र जलमें मिलाकर पिलाना चाहिये।

12. आँखोंमें दाह, सुस्ती, कब्जियत और अरुचिके ऊपर-

गोमूत्रमें थोड़ी शक्कर मिलाकर पिलाना चाहिये।

13. सफेद दाग और चकत्तोंके ऊपर-

 हरताल- पत्र, बावची तथा मालकांगनी गोमूत्रमें दिनभर भिगोकर पीछे खरल करके बटोरकर छायामें डाल दे। बादको नीबूके रसमें घिसकर लेप करे।

7. गव्य पदार्थ गाय का गोबर-

गौका गोबर दुर्गन्धनाशक, शोधक, सारक, शोषक, वीर्यवर्धक, पोषक, रसयुक्त, कान्तिप्रद और लेपनके लिये स्निग्ध तथा मल वगैरहको दूर करनेवाला होता है।

गोबर का उपयोग-

1. मृतगर्भ बाहर निकालनेके लिये – 

गोबरका रस सात तोला गायके दूधमें पिलाये।

2. गुदभ्रंशके लिये-

गोबर गरम करके सेंक करे।

3. पसीना बंद करनेके लिये – 

सुखाये हुए गोबर और नमकके पुराने बर्तन-इन दोनोंके चूर्णको शरीरपर लेप करे।

4. खुजलीके लिये –

 गोबर शरीरमें लगाकर गरम पानीसे स्नान करे।

7. गव्य पदार्थ गाय के गोबर की राख-

यह शोधक, व्रणको दूर करनेवाली, दुर्गन्धिनाशक, धान्यवर्धक, कृमि-कीटनाशक और शीतनिवारक होती है।

गोबर की राख का उपयोग-

1. शीतलासे फूट निकले छालोंपर –

राखको कपड़ेसे छानकर उससे भर दे। इसपर यही उपाय मुख्यतः श्रेष्ठ है।

2. साधारण व्रणके ऊपर-

घीमें राख मिलाकर लेप करे।

3. अन्नको राखमें भरकर रखनेपर-

घुन आदि नहीं पडते।

4. पेटमें छोटे-छोटे कृमि होनेपर – 

गोबरकी सफेद राख दो तोला लेकर दस तोला पानीमें मिलाकर पानी कपड़ेसे छान ले। तीन दिनतक सबेरे-शाम इस पानीको पिलाये।

5. दाँतकी दुर्गन्धि, जन्तु और मसूड़ेके दर्दपर- 

गायके गोबरको जलाये, जब उसका धुआँ निकल जाय तब उसे पानीमें डालकर बुझा ले, फिर कोयला करे। पीछे चूर्ण करके कपड़छान करे, इस मंजनको डिब्बेमें रख दे। रोज इस मंजनसे दाँत साफ करनेसे दाँतके सब रोग नष्ट होते हैं।

5/5 - (3 votes)
Scroll to Top