*दैनिक जीवन मे उपयोगी आयुर्वेदिक घरेलू औषधियाँ-
आज सम्पूर्ण विश्व वनस्पतियोंसे निर्मित औषधियोंकी ओर आकर्षित हो रहा है; क्योंकि मनुष्यको यह आभास हो गया है कि कृत्रिम औषधियाँ जहाँ एक ओर रोगको शान्त करती हैं वहीं दूसरी ओर शरीरके अङ्ग प्रत्यङ्गमें घातक प्रभाव डालकर कालान्तरमें जीवनको नष्ट करनेवाले रोगोंको भी उत्पन्न कर देती हैं। जबकि वनस्पतियोंसे निर्मित औषधियाँ रोगोंको समूल नष्टकर किसी भी प्रकारका घातक प्रभाव नहीं डालती हैं।
हमारे देशमें प्राचीन कालसे ही वनस्पतियोंका उपयोग औषधिके रूपमें चला आ रहा है। ऋषियोंने वेदोंमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंके आधारपर स्वस्थ एवं दीर्घ जीवनके प्राप्तिहेतु एक पृथक् शास्त्रका निर्माण किया, जिसे ‘आयुर्वेद’ (जीवनका विज्ञान जीवविज्ञान) कहा। आयुर्वेदके अनुसार सृष्टिमें निर्मित सभी द्रव्य पञ्चमहाभूतों (पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश) से बने हुए हैं और इनकी प्राप्ति पार्थिव, जाङ्गम एवं औद्भिज्ञ्ज योनिसे होती है।
पार्थिव-जो भूमिसे प्राप्त हो, यथा-स्वर्ण, रजत, ताम्र, लौह आदि; जाङ्गम-जो जङ्गमोंसे प्राप्त हो, यथा-गो-क्षीर, नख, मूँगा, मोती, श्रृंग आदि; औद्भिज्ज-जो पृथ्वीपर उत्पन्न होता हो, यथा-वृक्ष, लता, गुल्म आदि।
जाङ्गम द्रव्यकी अपेक्षा अधिक मिलता है। लगभग 80% वनस्पतियोंके प्रयोज्याङ्ग मूल, काण्ड, पत्र, पुष्प, कन्द, प्रकन्द, सार, निर्यास, फल, बीज आदि चिकित्सा-हेतु व्यवहृत किये जाते हैं। इनका प्रयोग प्रमुखतः दो प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये किया जाता है। जैसा कि आयुर्वेदके मूल ग्रन्थ-चरकसंहिता एवं सुश्रुतसंहितामें वर्णित किया गया है। पहला प्रयोजन है-स्वस्थ व्यक्तिके स्वास्थ्यकी रक्षा तथा दूसरा प्रयोजन है-आतुर (रोगी) के रोगका प्रशमन।
पहला प्रयोजन इस ओर इंगित करता है कि शरीरके स्वास्थ्यकी रक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, कारण भी स्पष्ट है; क्योंकि आरोग्यपूर्ण (स्वस्थ) शरीरसे पुरुषार्थचतुष्टय-धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति सुलभ है। संसारमें ऐसा कोई भी प्राणी नहीं होगा जो स्वस्थ जीवनकी अभिलाषा न रखता हो और रोगग्रस्त होनेपर शीघ्र ही रोगसे मुक्ति न चाहता हो।
यहाँपर दो प्रकारके कुछ ऐसे औषध द्रव्योंका वर्णन किया जा रहा है। पहला है जिन्हें आप गृह-वाटिकामें उत्पन्न कर परिवारके सदस्योंको उनके प्रयोगसे स्वस्थ जीवन प्रदान कर सकते हैं तथा दूसरे प्रकारके वे औषध-द्रव्य हैं, जो कि प्रतिदिन आहाररूपमें घरोंमें प्रयोग किये जाते हैं। ये औषधीय गुणोंसे भरपूर होते हैं।
यहाँ इन दोनों प्रकारके औषध-द्रव्योंको –
(क)आई औषध द्रव्य तथा
(ख) शुष्क औषध द्रव्यके रूपमें विवेचित किया जा रहा है-
(क) आर्द्र औषध-द्रव्य-
1. गिलोय/अमृता-

गिलोय नामसे सामान्यतः व्यवहृत होनेवाली यह वनस्पति लता-रूपमें वृक्षोंपर चढ़ी रहती है। नीम के पेड़पर चढ़ी हुई गिलोय सर्वश्रेष्ठ होती है। प्रायः सभी प्रान्तोंमें यह उत्पन्न होती है। इसके पत्ते हृदयके आकारके समान होते हैं। इसके पत्तेको काण्डसे पृथक् करनेपर मधुके समान स्राव निकलता है, जो स्वादमें तिक्त होता है। पेड़पर चढ़ी हुई लताके काण्डसे अनेक तन्तु निकलकर पृथ्वीकी ओर लटकते हैं, जो कालान्तर में बढ़कर काण्डका स्वरूप ले लेते हैं।
अमृतस्वरूप गुणकारी होनेके कारण इसे अमृता कहते हैं, इसके नियमित सेवनसे कोई भी व्यक्ति नीरोग रहकर दीर्घ जीवन प्राप्त कर सकता है। चिकित्सा वैज्ञानिकोंने भी इसमें व्याधि-प्रतिरोधात्मक औषधि तत्त्वोंको पाया है। चिकित्सा-हेतु काण्डका प्रयोग प्रमुख रूपसे किया जाता है।
अमृताके स्वरस अथवा कषायको 25-50 ml की मात्रामें सुबह पीना चाहिये। इससे किसी भी प्रकार का रोग नहीं होगा।
- ज्वरमें गिलोय के रस प्रयोग दिनमें तीन बार मधु मिलाकर करें। शीतज्वरमें यह अधिक लाभप्रद है।
भूख न लगती हो तो इसके स्वरसमें शुण्ठी(सोंठ) का चूर्ण 2 gm मिलाकर सेवन करें।
पिपासा (प्यास) अधिक लगती हो तो स्वरस में शर्करा(चीनी) एक-दो चम्मच मिलाकर सेवन करे।
कामला में शीत-कषाय बनाकर उसमें मधु मिलाकर प्रातः सेवन करना चाहिये।
शरीरमें यदि कण्डू (खुजली) हो रही हो तो कषाय (क्वाथ) या स्वरसमें हलदीका चूर्ण 5 ग्रामकी मात्रातक मिलाकर सेवन करना चाहिये।
इसके सेवनसे धी (बुद्धि), धृति (धारण) एवं स्मृति(स्मरण) शक्ति की वृद्धि होती है|
2. आँवला/आमलकी

आँवला के नामसे सामान्यतः आमलकी के फल बहुत होते हैं। इसका वृक्ष medium size का होता है तथा इसके पत्र इमलीके पत्रोंके सदृश, किंतु छोटे होते हैं। पत्रकके पृष्ठ भागसे फल निकलते हैं। फल हरित-पीताभ वर्णके गोल होते हैं। इसके फलोंका रस अम्ल-प्रधान, कषाय, तिक्त, मधुर एवं कटु होता है। व्यवहारमें बड़े एवं छोटे दोनों प्रकारके फलोंका प्रयोग किया जाता है, छोटे फलोंमें रेशे अधिक होते हैं और गुणोंमें भी ये उत्तम होते हैं। च्यवनप्राशमें सबसे अधिक मात्रामें आमलकीके फल प्रयोगमें लाये जाते हैं। ये फल कार्तिकके मध्यसे फाल्गुनके मध्यतक मिलते हैं।
आमलकीके ताजे फलोंका रस एवं मधु समान मात्रामें मिलाकर पीना चाहिये। यह शरीरमें रोग-प्रतिरोधात्मक शक्तिकी वृद्धि करता है। इसकी मात्रा 10-20 ml रखनी चाहिये। बालकों एवं वृद्धोंको 2-5 ml तक देना चाहिये। एक मासतक सतत सेवन करना चाहिये|
* रक्तार्शमें आमलकीका चूर्ण 2-6 ml अथवा स्वरस 5-10 ml लेना चाहिये।
* अम्लपित्तमें 2-6 ग्राम चूर्ण एवं शर्करा समान मात्रामें मिलाकर प्रयोगमें लाना चाहिये।
* हाथ-पैरोंमें दाह होनेपर गन्नेके रसमें एक चम्मच इसका चूर्ण मिलाकर प्रयोग करे।
* आमलकीका चूर्ण प्रातः मधुके साथ मिलाकर सेवन करनेसे वृद्धावस्थामें नेत्र ज्योति भी ठीक रहती है।
* जिह्वामें छाले हों तो भोजनके अन्तमें आमलक-चूर्णका सेवन करे।
* प्रमेहके रोगी आमलक-चूर्ण एवं हरिद्रा समान मात्रामें मिलाकर नियमित सेवन करे।
* मूत्रदाह अथवा मूत्रके साथ रक्त आनेपर आमलकका स्वरस 5-10 ml का प्रयोग करे।
* नेत्रमें जलन होनेपर आमलक/आँवला को पानीमें भिगोकर उस जलसे नेत्र धोनेसे लाभ मिलता है।
* सिरके बालोंको चमकदार करनेके लिये इसके फलोंको जलमें रातभर भिगो दें, प्रातः उससे सिर धो ले।
3. अड़ूसा/वासा -
- अड़ूसा नामसे व्यवहत होनेवाली यह वनस्पति क्षुप-रूपमें प्रायः सभी प्रान्तोंमें तथा हिमालयके निचले भागोंमें विशेषरूपसे उत्पन्न होती है। इसकी विशेषता है कि यह समूहबद्ध रूपमें उत्पन्न होती है। पत्ते दोनों सिरोंपर किंचित् नोकदार होते हैं तथा काण्डकी पर्वसन्धियाँ गाँठदार होती हैं। इसके पुष्प घेत रंगके शेरके मुखके समान दीखते हैं। पत्तोंको मसलनेपर गन्ध आती है।
- शुष्ककासमें पत्र-स्वरस 5-10 ml में दुगुने गुड़के साथ मिलाकर प्रयोग करे।
- आर्द्रकासमें पत्र-स्वरस मधु मिलाकर लेना चाहिये। श्वासके रोगी इसके पत्तोंका स्वरस शुण्ठी-चूर्ण 2-5 ग्राममें मिलाकर दिनमें चार बार सेवन करें।
- पत्र-स्वरसको तुलसीपत्र स्वरसके साथ सेवन करनेसे भी श्वासके रोगियोंको लाभ मिलता है।
- अड़ूसा/वासापत्र-स्वरस शर्करा एवं मधुके साथ सेवन करनेसे रक्त स्राव बंद हो जाता है।
- पत्र-स्वरसका प्रयोग वमनको रोकनेमें लाभप्रद होता है।
- जिस ज्वरमें कास भी हो तो पत्र-स्वरस पिलाना लाभदायक है।
- त्वचाके रोगोंमें पत्तोंको गो-मूत्रमें पीसकर लेप करे।
4. तुलसी-
- तुलसी नामसे सर्वत्र विख्यात यह क्षुप जातिकी वनस्पति है, जो सभी प्रान्तोंमें उत्पन्न होती है। इसके पत्ते किंचित् अण्डाकार होते हैं, पत्तेको रगड़नेसे सुगन्ध आती है। इसकी शाखाओंमें वर्षपर्यन्त मंजरियाँ निकलती रहती हैं। तुलसी रामा और श्यामा नामसे दो प्रकारकी होती है। श्यामा तुलसीके काण्ड रामाकी अपेक्षा नील-कृष्णाभ लिये होते हैं। श्यामा तुलसी अधिक गुणकारी होती है।
तुलसीके पत्तेको चबाकर खानेसे मुखमें छाले हो जाते हैं अथवा ये आमाशयमें दाह उत्पन्न कर सकते हैं। अतः उचित यह होगा कि जलमें भिगोकर सेवन करें।
- वासके रोगी पत्र-स्वरस 2-5 ml गरम जल (1 गिलास) में मिलाकर सेवन करें।
- वासापत्र-स्वरसके साथ इसके स्वरसका प्रयोग श्वासमें शीघ्र लाभ करता है।
- कासमें पत्र-स्वरसका दिनमें चार-पाँच बार सेवन गरम जलके साथ करें; विशेषरूपसे आर्द्रकासमें।
- पत्र-स्वरस 2-5 gm शुण्ठीके साथ लेनेसे अजीर्ण (भोजनका ठीकसे त पचना) रोगमें तुरंत लाभमिलता है।
- व्रणमें यदि कृमि हो गये हों तो श्यामा तुलसीके स्वरसको डालना चाहिये।
- शिरःशूलमें पत्र-स्वरसकी एक बूंद नाकमें डालनेसे लाभ होता है।
- प्रतिश्यायके रोगी पत्र-स्वरसको गरम जलमें मिलाकर दो-चार काली मरिचके साथ सेवन करें।
- तुलसीको विषहर भी कहा जाता है। अतः पीनेके पानीमें तुलसी डालकर पीना चाहिये। इससे पानीके दोष नष्ट हो जाते हैं।
- यह ब्राह्मी नामसे उत्तर भारतमें विशेषरूपसे व्यवहृत होती है। यह एक प्रसरणशील क्षुपरूपीय वनस्पति है। काण्ड लम्बे, प्रसरी एवं पर्व ग्रन्थियोंपर मूलोंसे युक्त होते हैं। इसके पत्ते गोल-दन्तुर एवं वृक्काकार होते हैं।
- ब्राह्मी-स्वरसका प्रयोग बुद्धिवर्धक होता है। प्रातः काल दो-से-चार चम्मच स्वरसका सेवन करना चाहिये।
- इसके पत्तोंका शाक घृतमें बनाकर सेवन करनेसे निद्रा आती है।
- अस्थि-संधियोंमें शोथ होनेपर प्रातःकाल पाँच- दस पत्तेका सेवन करे। अनुपानके रूपमें एक चम्मच मधु जलमें घोलकर पीवे।
- पुरीषके साथ रक्त आता हो तो पत्र-स्वरसको भुने हुए जीरेके साथ मिस्त्री मिलाकर सेवन करना चाहिये।
(ख) शुष्क औषध-द्रव्य-
5. हल्दी/हरिद्रा-
हमारे देशमें सभी लोग हलदीसे भलीभाँति परिचित हैं। आहारके उपयोगी इल्योंमें इसका प्रयोग प्रमुखतासे किया जाता है।

प्रतिश्याय एवं कासमें हलदीका चूर्ण आधा चम्मच घृत में भूनकर गुड़के साथ सेवन करे। अनुपानके रूपमें गरम दुग्धका पान करे।
त्वचाके रोगोंमें हरिद्राका प्रयोग गोमूत्र मिलाकर करना चाहिये। इसका बाह्य एवं आभ्यन्तर प्रयोग अति लाभकर होता है।
व्रण यदि नहीं भर रहा हो तो हलदीचूर्ण आधा चम्मच और आमलकचूर्ण एक चम्मच मिलाकर सेवन करे।
चोटके कारण शोथ होनेपर महीन चूर्णका लेप पानके स्वरसमें मिलाकर बाँध दे।
शरीरमें कण्डू होनेपर आधा चम्मच हलदीचूर्ण गरम जलके साथ सेवन करना चाहिये।
6. जीरा/जीरक -
बाजारमें जीरक एवं कृष्णजीरक नामसे दो प्रकारका जीरक मिलता है। कृष्णजीरक अधिक मूल्यवान् है, इसका प्रयोग औषधि निर्माणमें ही करते हैं, जबकि जीराका प्रयोग भोजनमें ही करते हैं।

- ज्वरमें यदि जाड़ा भी लगता हो तो तीन ग्राम जीरा का चूर्ण मधुसे खाना चाहिये।
- अतिसारमें आधा चम्मच जीरकका चूर्ण ताजे दहीके साथ लें, शीघ्र लाभ होता है।
- बालकोंको यदि वमन एवं अतिसार हो रहा हो तो मधु एवं शर्करा मिलाकर सेवन करायें।
- कृष्णजीरकके चूर्णका एक-दो ग्राम गरम जलसे प्रयोग करनेपर शूल ठीक हो जाता है।
7. सौंफ/मधुरिका-
~बाजारमें दो प्रकारकी सौंफ मिलती है। छोटे प्रकारकी सौंफ जिसे बादियाण रूमी भी कहते हैं। यह भी सौंफ नामसे ही मिलती है। उत्तर-पश्चिम भारतमें इसकी खेती की जाती है। यह अधिक हरे रंगकी होती है। स्वादमें यह अधिक मधुर होती है। सौंफ नामसे प्रयोगमें आनेवाला द्रव्य छोटे सौंफको अपेक्षा कटु रसयुक्त होती है। दोनों ही सुगन्धित होती हैं।
~दोनोंका प्रयोग भोजनके पश्चात् मुख-सुगन्धिके रूपमें किया जा सकता है। सौंफ मुख सुगन्धिके साथ-साथ आहारके पाचनमें भी सहायक होती है। भूनकर खानेसे यह अधिक लाभप्रद होती है।

- मूत्र-त्याग करते समय यदि दाहका अनुभव हो तो सौंफको गरम जलमें भिगोकर छोड़ दें, कुछ समय पश्चात् ठंडा होनेपर पी लें।
- सौंफका अर्क बच्चोंके पाचन संस्थानके विकारोंको नष्ट कर देता है।
- हाथमें यदि पसीना आता हो तो 50 ग्राम सौंफको भून लें और उसमें 50 ग्रामको मात्रामें बिना भूनी सौंफ मिला दें। दिनमें तीन बार नियमित रूपसे सेवन करे|
8. काली मिर्च/मरिच-
बाजारमें मरिच दो प्रकारको मिलती है-कालो मरिच और सफेद मरिच। काली मरिचके बाह्य आवरणको रगड़कर निकाल देते हैं, जिससे सफेद दिखती है, इसीको सफेद मरिच कहते हैं। यह काली मरिचकी अपेक्षा कम तीक्ष्ण होती है।

- एक ग्रामकी मात्रामें मरिच मधुके साथ सेवन करनेसे कास ठीक होता है।
- आधा ग्राम मरिच-चूर्ण दूधके साथ नियमित रूपसे सेवन करनेसे पेटके रोग नहीं होते।
- मरिचका प्रयोग घीके साथ करनेसे यह भूखको बढ़ाती है।
- प्रतिश्यायमें दो-चार ग्राम मरिच चूर्ण गुड़ तथा दूधके साथ सेवन करना चाहिये।
विशेष– समान मात्रामें शुण्ठी, मरिच तथा पिप्पलीका चूर्ण बनाकर रख लें। तीनोंको मिलानेसे यह ‘त्रिकटु’ कहलाता है। त्रिकटु श्वास, कास, हिक्का, मन्दाग्नि एवं प्रतिश्यायकी अच्छी औषध है। पित्तके रोगी घीके साथ, वातजन्य रोगी एरण्ड (रेंड़ी) तेलके साथ तथा कफज-रोगी मधुके साथ सेवन कर लाभ ले सकते हैं।
9. धनिया/धान्याक -
बाजारमें दो प्रकारकी धनिया मिलती है-एक छोटी तथा दूसरी कुछ बड़ी। छोटी धनिया विशेषरूपसे पर्वतीय क्षेत्रोंमें मिलती है। जो सुगन्धयुक्त होती है और अधिक गुणकारी होती है।

- मूत्रदाहमें आधा चम्मच धनियेका चूर्ण गुनगुने जलसे नियमपूर्वक सेवन करे।
- अम्लपित्तके रोगी इसका चूर्ण प्रातःकाल आधासे एक चम्मच जलके साथ सेवन करे अथवा अम्लपित्त होनेपर एक चम्मच चूर्णको मुखमें डालकर धीरे-धीरे चूसते हुए रसको निगल ले।
10. अजवाइन/यवानी-
अजवाइन नामसे छोटे-छोटे गोल द्रव्यकी भारतवर्षमें सर्वत्र खेती होती है। इसमें तीव्र प्रकारकी एक गन्ध होती है, जिससे इसे आसानीसे जाना जा सकता है।

- उदरशूल(पेट के रोग)में 2 ग्रामसे 4 ग्रामकी मात्रामें यवानी (अजवाइन) गुनगुने जलसे लेना चाहिये।
- उदर-कृमिमें यवानी-चूर्ण 3 ग्रामसे 6 ग्रामतक दुगुने गुड़के साथ लेना चाहिये।
- सन्धिशूलमें यवानीकी पुल्टिस बनाकर गरम तिलके तेलमें भिगोकर सेंकना चाहिये।
- बच्चोंको श्वास और खाँसी होनेपर अजवाइनको तेलमें पकाकर छातीमें लगाना चाहिये।
- मद्य पीनेकी आदत छुड़ानेके लिये यवानी (अजवाइन) को चबाना चाहिये।