सबसे पहले हम जानेंगे की गुग्गुल क्या होता है ओर गुग्गुल का प्रकरण क्या होता है-
*गुग्गुल(guggul) प्रकरण*
~आयुर्वेदीय चिकित्सा जगत में “गुग्गुल” का अत्यन्त ही महत्वपूर्ण स्थान है। समस्त (80) प्रकार के वायु रोगों में इसका कुशल वैद्यजनों द्वारा सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाता है, लेकिन इसके सेवन से पूर्ण रूपेण लाभ तभी सम्भव है जबकि शास्त्रोक्त विधि-विधान से शोधन कर खूब कुटाई करने के उपरान्त बनया जाये/तैयार किया जाये तथा रोगी भी पथ्यापथ्य (आहार-विहार) का पालन कर इसका विधिवत उचित मात्रा में व उचित अनुपान के साथ सेवन करें।
अस्तु। अनेकों बार गुग्गुल को पाक किया जाता है तथा अनेक बार इसको ओषधियों में मिलाकर घी आदि के साथ कूटा जाता है। गुग्गुल का पाक भी गुड़ आदि के समान ही किया जाता है, किन्तु गुड़ आदि का पाक सिद्ध होने पर पतला रहता है, जबकि गुग्गुल का पाक घन (गाढ़ा) रहता है। यदि गुग्गुल जल में डालने से नीचे बैठ जाये और इधर-उधर न फैले तो पाक सिद्ध होने का संकेत/ परिचायक है।
यदि पाक न करना हो तो अच्छे, साफ गुग्गुल को ओषधियों के चूर्ण में मिलाकर इमामदस्ता में डालकर खूब कूटना चाहिए। कूटते समय बीच-बीच में थोड़ा घी अथवा एरण्ड का तेल डालते रहना चाहिए। इसको जितना ही अधिक कूटा जायेगा यह (गुग्गुल) उतना ही अधिक अच्छा बनेगा। प्राचीन आयुर्वेदज्ञों का तो कथन है कि गुग्गुल में 1 लाख बार मूसली की चोटें पड़ जाने से यह सर्व रोग नाशक बन जाता है।

योग में लिए जाने पर गुग्गुल-अग्निदीपक, शान्ति दायक, अफरा नाशक तथा पाचन शक्ति को बलवान करने वाला है। इसके सेवन से पेट में कुछ गर्मी अनुभव होने लगती है। गुग्गुल रक्त के श्वेताणुओं तथा फेगोसाइटोसिस नामक कोषाणुओं को बढ़ाता है तथा गुदा व श्लैष्मिक झिल्लियों को यह उत्तेजित करता है एवं उनकी ग्रंथियों (ग्लैण्ड्स) के कृमियों को नष्ट करता है। यह स्वेद/पसीना लाने वाला, उत्तेजक तथा कफ निस्सारक भी है।
यह गर्भाशय को उत्तेजित करता है तथा मासिक धर्म को नियमित करता है। बहुत अधिक समय तक इसका सेवन करने से भी किसी प्रकार की हानि नहीं होती है। कभी-कभी इसके प्रयोग से वृक्कों/गुर्दों में जलन उत्पन्न हो जाती है। और शरीर पर कोपेवा के सदृश कुछ फुन्सियाँ हो जाती है, किन्तु इसका सेवन बन्द करते ही ये फुन्सियाँ मिट जाती हैं। इसका लोशन दुष्ट व्रणों का’ भरने, मसूढ़ों की सूजन, दाँतों की सड़न, पायरिया, तालुमूल ग्रन्थि का पुराना प्रदाह, कण्ठ नली की जलन, तथा गले के व्रणों को मिटाने के काम आता है। यह लोशन इसके 1 ड्राम टिंक्चर को 10 औंस पानी में देने से तैयार होता है।
पुराने अग्निमान्ध रोग में-यह अग्नि दीपक की भाँति काम में लाया जाता है। यह उदर यन्त्रों के ढीलेपन और पेशियों की दुर्बलता को भी मिटाता है। पुराना नजला, अतिसार, आँतों की सूजन, आँतों के व्रण और बड़ी आँतों के पुरातन-प्रदाह में भी यह अतिशय लाभकर है। फेफड़ों के क्षय में यह एक उत्तेजक तथा कृमि नाशक ओषधों के तौर पर सफलता पूर्वक प्रयोग किया जाता है। इसके प्रयोग से ज्वर कम होता है। भूख बढ़ती है, कृमि नष्ट हो जाते हैं तथा जीवन शक्ति (इम्यूनिटी) को बल मिलता है।
गुग्गुल को कुछ समय तक नियमित रूप से सेवन करने से रासायनिक गुणों की प्राप्ति होती है, क्योंकि यह रसायन है। जलोदर व पाण्डु रोग में और फुफ्फुस के व्रण-प्रदाह में इसका प्रयोग अत्यन्त ही कल्याणकारी है। स्नायविक दुर्बलता और साधारण कमजोरी (डेबिलिटी) को यह दूर करके कामशक्ति (सैक्स पावर) को भी बढ़ाता है। वायु नलियों का प्रदाह, कुक्कुर खाँसी (हूपिंग कफ) और निमोनियां में प्रत्येक 4-6 घण्टे के अन्तराल पर रोगी की आयु+ बलानुसार उचित मात्रा में इसके प्रयोग से अच्छा लाभ होता है।
~गुग्गुल के प्रयोग से कुष्ठ रोगियों की भी दशा काफी हद तक सुधरती है तथा इस व्याधि से उत्पन्न हुई अन्य व्याधियाँ भी नष्ट होती है। मूत्राशय की जलन, सूजाक और पेडू की सूजन में तीव्र लक्षणों के दूर हो जाने पर इसके सेवन से अच्छा लाभ होता है।
यह श्वेत प्रदर, अत्याधिक रजः स्त्राव, गर्भाशयावरण की पुरानी सूजन एवं नष्टार्त्तव में भी बहुत ही लाभकर है। इसके अतिरिक्त-वात विकार, आमवात, वातरक्त, प्रमेहव्रण, अपची, गलगण्ड, गण्डमाला, व्रण, कुष्ठ, कृमि, श्लैष्मिक कला का प्रदाह, स्नायु-विकार एवं अन्य विकार आदि रोगों में-गुग्गुल का प्रयोग विशेष लाभकर है।
~गोक्षुरादि गुग्गुल (gokshuradi guggul)~
*निर्माण विधि-
गोखरु का पंचांग 112 तोला लेकर खूब कूटकर 6 गुणा पानी में पकायें। आधा पानी शोष रहने पर उतार कर छान लें। तदुपरान्त इसमें शुद्ध गुग्गुल 28 तोला मिलाकर गुड़पाक के समान गाढ़ा कर उसमें नीचे लिखे द्रव्य मिलायें। सोठ, मिर्च, पीपल, हरड़, बहेड़ा, आँवला, नागरमोथा-प्रत्येक का बारीक कुटा विसा कपड़छान किया हुआ चूर्ण (4-4 तोला) मिलाकर गाय का घी अथवा एरण्ड गोल के साथ कूटकर 3-3 रत्ती वजन की गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें।
*मात्रा व खाने की विधि-
वयस्क रोगियों के लिए-1-1 गोली दिन में 2 बार (प्रातः-सायं) गोखरु क्वाथ अथवा प्रमेह हर क्वाथ के अनुपान के साथ दें।
* गुण व उपयोग-
इसके सेवन करने से प्रमेह, मूत्रकृच्छ्र (रुक-रुक कर मूत्र होना) मूत्राघात, अश्मरी/पथरी, प्रदर रोग, वात रक्त, शुक्रदोष तथा मूत्राशय गत समस्त विकारों में लाभ होता है। इस ओषधि का प्रभाव मूत्राशय व मूत्रनली और वीर्यवाहिनी शिराओं पर अधिक होता है।
यह रोग कई कारणों से हो जाया करता है। (जैसे-सूजाक, पथरी, कृमि, मूत्र ग्रन्थि का प्रदाह, जरायु की विकृति, वृक्क (किडपी) का विकार तथा आंव आदि से।) वृक्क/गुर्दों की विकृति से जब मूत्र कृच्छु रोग होता है तब वमन व दस्त की रोगी को हाजत होती है। गुर्दे से वेदना दर्द उठकर बस्ति/पेडू अथवा जननेन्द्रिय तक जाती है। मुख्यतया मूत्रकृच्छ में बार-बार मूत्र त्याग की हाजत हाती है। तथा बड़े कष्ट के साथ बूंद-बूंद मूत्र त्याग होता है अथवा नहीं भी होता है। मूत्र त्याग के समय भयानक दर्द होना आदि लक्षण होते हैं।
ऐसी दशा में गोक्षुरादि गुग्गुल के सेवन करने से रोगी को बहुत ही लाभ होता है, क्योंकि मूत्राशय व मूत्रनली के विकारों की यह गुग्गुल(guggul) शमन करता है जिससे मूत्र खुलकर व साफ आने लगता है।
** मूत्रघात/मूत्रस्तम्भ (Urinating)-
यह रोग भी अत्यन्त भयानक खतरनाक है। इस रोग से पीड़ित रोगी के मूत्राशय (पेशाब की थैली) में मूत्र भरा रहता है, किन्तु मूत्र उतरता नहीं है। नाभि के नीचे तल पेट (पेडू) फूल जाता है। पेशाब करने की हाजत/इच्छा होती है, किन्तु मूत्र त्याग नहीं होता है। फिर रोगी को बेचैनी, तन्द्रा, मोह और बेहोशी आदि लक्षण होते हैं। रोगी दर्द के मारे चिल्लाता रहता है। पेडू (बस्ति प्रदेश) फूलकर गाँठ सो हो जाती है। तथा दबाने पर कठोरता अनुभव होती है, रोगी को उससे विशेष कष्ट होता है।
इसमें रबर की सलाई (कैथेटर) रोगी की जननेन्द्रिय (लिंग या योनि) में डालकर पेशाब कराना चाहिए और साथ ही गोक्षुरादि गुग्गुल का भी सेवन-गोक्षुरादि क्वाथ के अनुपान के साथ यवक्षार और मिश्री मिलाकर करना चाहिए। शुक्र प्रमेह अथवा शुक्र की क्षीणता में यह गुग्गुल बहुत लाभ करता है। गाय के दूध के साथ कुछ दिनों तक निरन्तर इसका सेवन करने से शुक्र की वृद्धि होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट हो जाता है। यह वृष्य व रसायन भी है।

~त्रिफला गुग्गुल(triphla guggul)~
* निर्माण विधि-
-त्रिफला चूर्ण 12 तोला, पीपल का चूर्ण 4 तोला, शुद्ध गुग्गुल 20 तोला-इन सभी को एकत्र कूटकर गाय के घी के साथ 3-3 रत्ती वजन की गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें।
* मात्रा व अनुपान-
-(वयस्क रोगी के लिए)-2 से 4 गोली तक दिन में 2 बार प्रातः-सायं त्रिफला क्वाथ अथवा स्वस्थ देशी गाय के छाने हुए मूत्र के अनुपान के साथ सेवन करायें।

* गुण व उपयोग-
-त्रिफला गुग्गुल(triphla guggul) के सेवन करने से समस्त प्रकार के वातजशूल, भगन्दर, सूजन, बवासीर आदि रोग बहुत शीघ्र अच्छे/ठीक हो जाते हैं। भगन्दर व बवासीर में रोगी को कब्ज हो जाने के कारण कष्ट अधिक होता है, किन्तु त्रिफला गुग्गुल के सेवन करने से कब्ज ही नहीं होने पाता है, बल्कि पुराना कब्ज भी दूर हो जाता है। अतः यह विशेष लाभकर है। यह ओषधि थोड़ी रेचक होते हुए वायु शामक और रसायन है। बवासीर अथवा भगन्दर ये दोनों रोग ऐसे कष्टदायक है|
जिससे रोगी बेचैन हो जाता है। यदि बादी बवासीर हुई तो मस्से फूल जाते हैं, उनमें दर्द होने लगता है, पेट में वायु भर जाती है. दस्त कब्ज हो जाता है। थोड़ा या दस्त होता भी है तो वह भी बड़ी कठिनाई कष्ट के साथ होता है। यदि खूनी बवासीर हुई तो इसमें से रक्त निकलना प्रारम्भ हो जाता है। इसी प्रकार भगन्दर रोग में दस्त-कब्ज होने से यह रोग भी बढ़ जाता है, जिससे अत्याधिक दर्द और पूय स्राव होने लगता है। त्रिफला गुग्गुल का इन रोगों में प्रयोग करने से बहुत ही शीघ्र और उत्तम लाभ होता है।