Aarogya Anka

आयुर्वेद दुनिया का प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है Ιऐसा माना जाता है की बाद मे विकसित हुई अन्य चिकित्सा पद्धतियों मे इसी से प्रेरणा ली गई है Ιकिसी भी बीमारी को जड़ से खत्म करने के खासियत के कारण आज अधिकांश लोग आयुर्वेद के तरफ जा रहे हैΙइस लेख मे हम आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़ी हर एक रोग और उसके इलाज के बारे मे बताएंगे Ιआयुर्वेद चिकित्सा के साथ सभी प्रकार के जड़ी -बूटी के बारे मे तथा आयुर्वेद के 8 प्रकारों से हर तरह के रोगों के इलाज के बारे मे बताया गया हैΙ सभी पोस्टों को पढे ओर जानकारी अवश्य ले ताकि आप भी अपना जीवन आरोग्य के साथ healthy बना सके| thanks . 

घृत (घी) प्रकरण: घी बनाने की विधि इन Hindi

घृत( घी ) प्रकरण-

घृत (घी) पाक करने में सर्वप्रथम मूर्च्छित करना पड़ता है। तदुपरान्त उसमें जल. क्वाथ, दूध आदि द्रव्य पदार्थ (जो योगानुसार डालने हों उनको) और ओषधियों का कल्क डालकर उसको पकाया जाता है। घृत सदैव गाय का ही लें।

घृत(ghee) प्रकरण

*घृत मूच्छित करना-

  1 सेर गाय के घी को लेकर मन्दी आग पर गर्म करके फेन रहित होने पर उसमें हरड़, बहेड़ा, आंवला, हल्दी और नागरमोथा सब मिलाकर 8 तोला लेकर इन सभी को एकत्र करके बिजौरा नीबू के रस में पीस कर, कल्क बनाकर उपरोक्त घृत में डालें और घृत के समान भाग जल डालकर मन्दी आग पर पका लें। इस क्रिया के करने से घृत साफ, आम दोष रहित और वीर्यवान हो जाता है।

एक साथ 10-12 सेर घी को भी मूर्च्छित करके रख लिया जाता है और जब जिस घृत की आवश्यकता हो, तो उसमें घी लेकर, सिद्ध करने में सुविधा रहती है।

* आयुर्वेदिक मतानुसार-

घी (घृत), तेल आदि स्नेह द्रव का मूर्च्छन करने तथा पुनः सिद्ध करने में क्वाथादि द्रव्य के साथ बहुत समय तक आग पर पकाने से उनके मौलिक तत्व नष्ट हो जाते हैं। अतः मूच्र्छन द्रव्यों के कल्क को भी मुख्यपाक कल्क के साथ ही मिलाकर स्नेह पाक कर लेने से 2 बार पृथक पाक करने की आवश्यकता नहीं रहती है। इससे स्नेह को अग्नि पर पकाने के समय की अधिकता में भी पर्याप्त कमी हो जाती है, जिससे स्नेह के मौलिक गुण भी नष्ट होने से बच जाते है। इस प्रकार स्नेह (घृत-तेल आदि) उत्तम गुणकारी रहते है।

*घृतपाक हेतु-

क्वाथ घृतपाक के लिए जिन ओषधियों का क्वाथ बनाना हो तथा उसका कोई परिमाण (मात्रा/वजन) न लिखा हो तो वह सब मिलाकर घृत से दोगुना लेना चाहिए, यदि मृदु द्रव्य हो तो चौगुने जल में और अत्यन्त कठिन द्रव्य हो तो 16 गुणा जल में तथा मध्यम, कठिन या मृदु द्रव्य मिले हों तो 8 गुणा जल में पकाकर चौथाई (4) भाग शेष रहने पर छान लें। यदि क्वाथ द्रव्यों का परिणाम बहुत अधिक हो तो सबका क्वाथ एक ही साथ न बनाकर 5-5 सेर अथवा सुविधानुसार क्वाथ द्रव्य लेकर, कई बार में क्वाथ तैयार करके और घृत में डालकर पाक करते जाना चाहिए। इस प्रकार सब क्वाथों को मिलाकर पाक कर लें।

ओषधि (क्वाथ द्रव्य का परिमाण) 5 सेर हो तो जल । मन लेना चाहिए और शेष क्वाथ (जल) 10 सेर रखना चाहिए।

*घृत निर्माण/सिद्ध करने में दुग्ध आदि-

यदि योग में किसी दुग्ध विशेष का उल्लेख न हो तो सदैव गाय का ही दूध लेना चाहिए। यदि केवल दूध से ही घृत पाक करना हो तथा उसमें क्वाथ आदि अन्य द्रव्य पदार्थ नहीं डालने हो तो दूध घृत से चौगुनी मात्रा में लेना चाहिए तथा यदि घृत में अन्य पदार्थ भी डालने हो तो दूध घृत के सपान मात्रा में लेना चाहिए। यदि 3 द्रव्य पदार्थों से घृत पाक करना हो तो इनको बराबर-बराबर मात्रा में लेकर व मिलाकर घृत से 8 गुणा लेना चाहिए और यदि 4 अथवा 4 से अधिक द्रव पदार्थ डालने हो तो प्रत्येक पदार्थ घृत के समान ही लेना चाहिए। 

यदि केवल स्वरस, दूध, दही, तक्र रस आदि से घृत पाक करने को लिखा हो तो घृत से चौगुना जल अवश्य लेना चाहिए। (क्योंकि केवल दूध-दही आदि से स्नेह का पाक भली प्रकार सिद्ध नहीं होता है।)

* घृत सिद्ध करने हेतु कल्क-

स्नेह में साधारणतया स्नेह का चौथा भाग कल्क डाला जाता है, परन्तु यदि वासापुष्प आदि का कल्क डालना हो तो स्नेह से आठवाँ भाग लेना चाहिए। यदि केवल जल से ही स्नेह सिद्ध करना हो तो कल्क चौथाई भाग क्वाथ से सिद्ध करना हो तो छठा भाग और स्वरस से सिद्ध करना हो तो 8वाँ भाग कल्क डालना चाहिए।

घृत पाक करने से सम्बन्धित कुछ अन्य विशेष स्मरणीय जानकारियाँ

*स्नेह (घृत-तेल) का परिमाण/तौल न लिखी हो तो स्नेह 1 सेर लेना चाहिए तथा उसमें उक्त परिभाषा के अनुसार जल आदि डालना चाहिए।

*(उपरोक्त परिभाषा-केवल उस स्थान के लिए है, जहाँ द्रव्यों का परिमाण नहीं लिखा हो। जहाँ परिमाणों का उल्लेख हो, वहाँ लिखे अनुसार ही डालना चाहिए।)

* यदि गोमूत्र आदि क्षार युक्त पदार्थों के साथ स्नेह पाक करना हो तो अत्याधिक सावधानी रखनी आवश्यक है कि कहीं स्नेह उफनकर कड़ाही से बाहर न निकल जायें। ‘क्योंकि क्षार पदार्थों के योग से स्नेह में अत्याधिक झाग (उफान) आते हैं।

* जहाँ किसी गुण की समस्त ओषधियाँ न मिल सके, वहाँ जितनी ओषधियाँ मिल जाये उतनी ओषधियों से काम चला लेना चाहिए तथा जो ओषधि न मिल सकें उनके प्रतिनिधि द्रव्यों को डालना भी अच्छा है।

* यदि स्नेह को दूध के साथ सिद्ध करना हो तो 2 दिन में तथा यदि स्वरस के साथ सिद्ध करना हो तो 3 दिन में और तक्र, कांजी आदि से सिद्ध करना हो तो 5 दिन में पाक कार्य पूर्ण करना चाहिए। अर्थात प्रथम दिन थोड़ी देर उसको पकाकर छोड़ देना चाहिए और पुनः दूसरे दिन पकाना चाहिए। इस प्रकार 1 ही दिन में पाक सिद्ध न करके कई दिनों में पाक सिद्ध करने से घृत-तेल अधिक गुण युक्त होते हैं। धान्य (चावल, उड़द, मसूर, आढ़की, यव आदि अनाज) क्वाथ अथवा माँस रस से पाक सिद्ध करना हो तो एक दिन में ही स्नेह पाक कर लेना चाहिए।

* सिद्ध स्नेह के लक्षण –

यदि स्नेह का कल्क आग में डालने पर किसी प्रकार का शब्द न हो और अग्नि में डालते ही कल्क जलने लगे तो यह स्नेह सिद्ध होने का परिचायक है।

घृत का पाक सिद्ध होने के समय झाग (उफान) शान्त हो जाते हैं, किन्तु तेल का पाक पूर्ण होते समय झाग/फेन उठते हैं। स्नेह पाक होने पर थोड़ा सा कल्क कौंचे से निकालकर अंगूठा व तर्जनी अंगुली के बीच दबाकर घुमाने से वत्ती बनने लगती है।

स्नेह पाक के भेद या प्रकार-

स्नेह पाक 4 प्रकार का होते हैं, तो नीचे लिखे है-

1. मृदुपाक,

2. मध्यपाक,

3. खरपाक और

4. दग्धपाक।

यदि स्नेह का कल्क किंचित रस युक्त हो तो उसको ‘मृदुपाक तथा नीरस किन्तु कोमल हो तो मध्यम पाक, एवं कुछ कठिन हो तो “खरपाक” और यदि कल्क जलकर कठिन हो जाये तो उसको “दग्धपाक” कहते हैं। (दग्धपाक का स्नेह दाहकारक और गुण रहित होता है।)

उक्त चारों प्रकार के पाकों में मध्यमपाक सर्वोत्तम तथा दग्धपाक का निकृष्ट माना जाता है। अभ्यंग (मालिश) के लिए खरपाक अच्छा होता है।

*घृतों के सामान्य उपयोगी गुण-

गाय का घी/घृत अत्यन्त स्निग्ध और पौष्टिक होता है। ओषधियों द्वारा सिद्ध होने पर यह घी अधिक पाचक और अन्तड़ियों तथा बस्ति को शुद्ध करके, मलावरोध और मूत्र संकोच को दूर करता है। यह घृत स्निग्ध होने से मलाशय, मस्तिष्क, मांस-अस्थियों, शिराओं तथा नेत्रों की ज्योति (नजर) आदि को शक्ति प्रदान करके पुष्ट करता है। धातु क्षीणता को दूर करने के लिए तो यह अमृत सदृश गुण करता है।

*सिद्ध पाक घृतों का सामान्य प्रयोग –

घृतों का सामान्य प्रयोग/उपयोग पित्त विकार एवं नालश्रित वायु विकार, (पेट में वायु भर जाना) में करना अत्याधिक लाभकर है, यथा-अपच, बदहजमी, संग्रहणी, बवासीर, रक्तपित्त, अपस्मार, योषापस्मार, (हिस्टेरिया), रक्त विकार, माथे का दर्द, भ्रमरोग, नेत्र रोग, व्रण, भगन्दर तथा स्त्रियों के गर्भाशय के अनेक रोगों में सिद्ध घृतों का उपयोग/प्रयोग विशेष लाभ कर है।

घृतों की सामान्य मात्रा व अनुपान –

(वयस्कों के लिए) 6 माशा से 1 तोला तक दिन में आवश्यकतानकुसार 2-3 बार तक गुनगुना जल, गाय का दूध अथवा रोगानुसार किसी क्वाथ/काढ़े के साथ किया जा सकता है।

1. अर्जुन घृत(घी)

मूच्छित गाय का घी 1 सेर और अर्जुन वृक्ष की छाल 2 सेर लेकर, सर्वप्रथम अर्जुन की छाल को लेकर जौकुट करें। तदुपरान्त इसमें 16 सेर जल मिलाकर विधिवत चतुर्थांश क्वाथ करें। जब 4 सेर जल शेष रहे तब उतार-छान लें। तदुपरान्त अर्जुन की छाल 10 तोला लेकर उसका कल्क बनायें, फिर उपरोक्त क्वाथ, घृत और कल्क को एकत्र मिलाकर घृतपाक विधि से घृतपाक कर लें। घृत सिद्ध हो जाने पर छानकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपान –

(वयस्कों के लिए) 3 माशा से 6 मिश्री के साथ चटाकर ऊपर गोदुग्ध पान करायें।

गुण व उपयोग-

मिथ्या आहार-विहार व अधिक तीव्र ओषधियाँ और अधिकतर गरिष्ठ भोजन के सेवन करने से उदर में वायु का संचय हो जाता है तथा वह गैस का रूप धारण कर लेती है। गैस के कारण घबराहट और हृदय की धड़कन अधिक होने लगती है। यहाँ तक कि श्वास भी कठिनाई से आता है। कभी-कभी गैस के कारण के अलावा यह कष्ट/विकार (रोग) स्वतन्त्र रूप से भी हो जाता है। 

इस रोग में मिश्री के साथ इस घृत का सेवन करने से तथा ऊपर से गाय का दूध सेवन करने से शीघ्र ही लाभ होता है। इस घृत का पथ्यापालन पूर्वक निरन्तर कुछ दिनों तक सेवन करने से समस्त प्रकार के हृदय रोग निःसन्देह नष्ट हो जाते हैं और हृदय की क्रिया व्यवस्थित रूप से होने लगती है।

2. अशोक घृत

अशोक की छाल 1 सेर लेकर 8 सेर जल में पकावें। जब पकते पकते चौथाई जल शेष रहे तब उतार कर छान लें। इस क्वाथ में गाय का घी । सेर, चावलों का धोवन, बकरी का दूध और जीवक का रस तथा कुकुरभांगरे का रस प्रत्येक 1-1 सेर लेकर इनको भी मिला दें।

कल्क के लिए जीवनीय गण की ओषधियों-  चिरौंजी, फालसे, रसौत, मुलहठी, अशोक की छाल, दाख, शतावर और चौलाई की जड़ इनमें से प्रत्येक ओषधि को सिल पत्थर पर पानी के साथ पीस-पीस कर 2-2 तोला लुगदी तैयार कर लें तथा पिसी हुई मिश्री 32 तोला लें। कलईदार कढ़ाही में कल्क अथवा लुगदी और मिश्री तथा ऊपर के क्वाथ आदि को डालकर मन्दाग्नि से पकायें। जब घी मात्रा ही शेष रह जाये तब उतार कर छान लें और साफ बर्तन में सुरक्षित रख दें। इस घी को स्वयं भगवान विष्णु ने बनाया था।

मात्रा व अनुपान – 

(वयस्कों के लिए) 1-1 तोला दिन में 2 बार सुबह-शाम गाय के दूध अथवा गर्म जल के साथ दें।

गुण व उपयोग-

यह घृत लाल (रक्त), सफेद व नीले-पीले रंग के स्त्रियों के प्रदर रोग, कुक्षि का दर्द, कमर व योनि की पीड़ा, अरूचि, मन्दाग्नि, पाण्डु, दुबलापन, श्वास, कामला आदि रोग नष्ट होते हैं। यह बल और शरीर को कान्ति को भी बढ़ाता है।

यह घृत स्त्रियों के लिए अमृत सदृश लाभकारी है। प्रदर रोग में विशेषकर- पित्त और वायु के दोष पाये जाते हैं, जैसे-हाथ-पैर (हथेलियों व तलुवों) में जलन होना, आँखों के सामने चिनगारियाँ उड़ना, अन्न नहीं पचना, भूख न लगना, कमर में दर्द व सिर में दर्द होना व आलस्य आदि। इसमें अशोक घृत के सेवन से बहुत शीघ्र लाभ होता है। (क्योंकि यह प्रकुषित वायु और पित्त का शमन करके उसके विकारों को दूर करता है तथा पाचक पित्त को उत्तेजित करके हाजमा को ठीक करता है। फिर भूख भी लगती है और खाना हजम होने लगता है। धीरे-धीरे शरीर पुष्ट होकर रोगिणी स्वस्थ हो जाती है

3. अश्वगन्धादि घृत

असगन्ध 2 सेर लेकर जौकुट करके 16 सेर जल में क्वाथ करें। जब 4 सेर जल शेष रहे तब उतार कर छान लें। तदुपरान्त असगन्ध 10 तोला और लेकर उसका कल्क बनायें। तदुपरान्त मूच्छित किया हुआ गया का घृत । सेर तथा गाय का दूध 4 सेर में क्वाथ और कल्क सबको एकत्र मिलाकर ताँबे की कलईदार अथवा लोहे की कढ़ाही में डालकर घृपाक विधिनुसार घृत का पाक करें। घृत सिद्ध होने पर छानकर सुरक्षित रख लें।

विशेष-

द्रव्य पदार्थों को द्रव द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है। 

मात्रा व अनुपान – 

(वयस्कों के लिए) 3 माशा से 6 माशा तक, मिश्री के साथ चटाकर, ऊपर से गाय का दूध सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

इस घृत का सेवन करने से समस्त प्रकार के वातरोग, सन्धिशूल, (जोड़ो का दर्द), कमर का दर्द, किसी भी अंग में आयी हुई अशक्तता, भ्रम (चक्कर आना) तथा अनिद्रा आदि रोग विकार नष्ट होते हैं। यह घृत स्नायुमण्डल को शक्ति प्रदान करता है तथा रस, रक्तादि (सप्त) धातुओं को पुष्ट करके शरीर को बलवान बनाता है। इसके अतिरिक्त यह घृत उत्तम बाजीकरण तथा पौरूष शक्ति (मर्दाना शक्ति) वर्द्धक भी है।

4. कासीसादिघृत

कासीस, हल्दी, दारूहल्दी, नागरमोथा, अशुद्ध, हरताल, अशुद्ध, मैनसिल, अशुद्ध गन्धक, कबीला, वायविडंग, अशुद्ध गुग्गुल, मोम, कालीमिर्च, कूठ, अशुद्ध तूतियां, सफेद सरसों, रसौत, सिन्दूर, राल, लाल चन्दन, इरिमेद की छाल, नीम की पत्तियाँ, करन्ज के बीज, बच, अनन्त मूल, मजीठ, मुलहठी, जटामांसी, सिरस की छाल, लोध्र, पद्मकाष्ठ, हरड़, पंवाड़ के बीज-प्रत्येक 1-1 तोला लेकर सभी कूटने योग्य ओषधि द्रव्यों का बारीक कपड़ छान चूर्ण करें।

 तदुपरान्त गाय का घी 1ऋ सेर की मात्रा में लेकर, सभी द्रव्य एकत्र मिलाकर, ताँबे के पात्र में एक सप्ताह तक तेज धूप में रखा रहने दें तथा प्रतिदिन 2 बार डण्डे से चला दिया करे। उसके उपरान्त ताम्र पात्र से द्रव्यों सहित घृत को निकाल कर इमर्तबान आदि पात्र में सुरक्षित रख लें। यह घृत मरहम की तरह लगाने के कार्य में आता है।

गुण व उपयोग-

इस घृत की शरीर पर मालिश करने से समस्त प्रकार के कुष्ठ, दाद, यामा, विचर्चिका, शुक्रदोष, विसर्प, वातरक्त जनित विस्फोट, सिर के फोड़े, उपदंश, नाड़ीव्रण, शोथ, भगन्दर, मकड़ी के विषजनित फफोले आदि विकार नष्ट होते हैं। यह घृत व्रण शोधक, व्रण रोपक तथा व्रण वस्तु (फोड़ों के दागों) को मिटाकर त्वचा के वर्ण (रंग) को सुधारता है।

5. कल्याण घृत

इन्द्रायण, त्रिफा, रेणुका, (सम्हालूक बीज), देवदारू, एलुआ, शालपर्णी, तगर, अनन्त मूल, दोनों सारिवा, हल्दी, दारू हल्दी, फूल प्रियंगू, इलायची, मजीठ, नीलकमल, अनार दाना, दन्तीमूल, नागकेशर, तालीसपत्र, चमेली के ताजा फल, बड़ी कटेली, वायविडंग, पृश्नियर्णी कूठ, चन्दन और पदम्‌काष्ठ-प्रत्येक 1-1 तोला की मात्रा मे लेकर सबका कल्क बना लें और चौगुने जल के साथ 128 तोला गाय का घी पाक सिद्ध कर लें।

विशेष-

समस्त द्रव्यों को द्रव द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है।

गुण व उपयोग-

इस घृत को उचित मात्रा में सेवन करने से पुरुष में रक्तवृद्धि होती है, रति शक्ति बढ़ती है। जिस स्त्री के कन्यायें ही कन्यायें होती हों, जिसके सन्तान होकर मर जाती हो, जिसके गर्भ न रहता हो, जिसके गर्भ ठहर कर नष्ट हो जाता हो. जिस के पेट से मरी सन्तान उत्पन्न होती हो, यह घृत उनके लिए परम् उपयोगी है। इसके सेवन से बांझ स्त्री भी पुत्र पैदा करती है।

नोट-

यद्यपि इस योग में “लक्ष्मण की जड़” का नाम ही आया है किन्तु सुयोग्य वैद्य इसमें उसे भी डालते हैं। लक्ष्मण के मिलाने से निश्चय ही गर्भ ठहरता है और प्रायः पुत्र ही पैदा होता है।

उपरोक्त के अतिरिक्त यह घृत उन्माद, अपस्मार, हिस्टीरिया, दिमाग की खराबी, भूतोन्माद, मस्तिष्ककी कमजोरी, तुतलापन, पाण्डु, अग्निमान्द्य, कण्डू, जहर, सूजन, कास, श्वास, प्रमेह, ज्वर, पारी का ज्वर, वातरोग, जुकाम, वीर्य की कमी. बांझपन, बुद्धि की कमजोरी, मूत्रकृच्छु, विसर्प आदि को भी नष्ट करता है। दिमागी कमजोरी या बौद्धिक परिश्रम करने वालों के लिए यह घृत अमृत सदृश लाभकर है। इस घी के साथ ही कुष्माण्डावलेह भी ले सकते है। कुष्माण्डा बले हमें इस घी को मिला देरी से उसका स्वाद/जायका भी अच्छा हो जाता है तथा गुणों में भी वृद्धि हो जाती है।

पागलपन, मिरगी, हिस्टोरिया आदि रोगों में भी इस घृत के उपयोग से बहुत लाभ होता है। साथ में भूत भैरव रस, स्मृति सागर रस अथवा अभ्रक भस्म आदि का भी सेवन कराना चाहिए।

6. कामदेव घृत

असगन्ध 5 सेर, गोखरू 2½ सेर, बरियारा, गिलोय, सरिबन, बिदारीकन्द, शताबर, सोंठ, गदह पुरना, पीपल की कोपल, गम्भारी के फूल, कमल गट्टा और उड़द प्रत्येक 20-20 ग्राम लें। सबको जौकुट करके 51 सेर 16 तोला पानी में पकावें। 

जब 12½ सेर 4 तोला जल शेष रहे तब कपड़े से छानकर उसमें गाय का घी 256 तोला, गन्ने का रस 256 तोला और मेदा, महामेदा, जीवक, ऋषभक,काकोली, क्षीर काकोली, ऋद्धि, वद्धि, कूठ, पट्टमाख, लाल चन्दन, तेजपात, छोटी पीपल, मुनक्का, केवांच के बीज, नील-कमल, नागरकेशर, अनन्तमूल, बरियारा तथा कंघी प्रत्येक 1-1 तोला, मिश्री 8 तोला। इनका कपड़ छान किया हुआ चूर्ण, जल में पीसकर बनाया हुआ कल्क मिलाकर घृतपाक विधि से पकावें। घृत तैयार होने पर कपड़े से छानकर शीशी में सुरक्षित भर लें।

मात्रा व अनुपान –

 (वयस्कों के लिए) 6 माशा से 2 तोला तक समान भाग मिश्री का चूर्ण मिलाकर दें तथा ऊपर से गाय का दूध सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह घृत रक्तपित्त, क्षत-क्षीणता, वातरक्त, कमला, हलीमक, पाण्डु, स्वर क्षय, (गला बैठ जाना), मूत्रकृच्छ्र, हृदय की दाह और पसली के दर्द को दूर करता है। यह उत्तम पौष्टिक व बाजीकरण है। वीर्यक्षय, शरीर की कृशता (दुबलापन) और नपुंसकता में इसका प्रयोग अतीव गुणकारी है। इस घृत में अनेकों ओषधियाँ पौष्टिक और बल वीर्य वर्द्धक है। इस लिए यदि शुक्र क्षय के कारण शरीर दुबला हो गया हो अथवा भूख नहीं लगती हो, शरीर की कान्ति नष्ट हो गई हो, इत्यादि उपद्रवों में इसके सेवन से पूर्ण लाभ होता है।

यह घृत बाजीकरण भी है। अतः एव जो विषय भोग की इच्छा रखते हों वे भी इसके उपयोग से लाभ उठा सकते है, किन्तु असके साथ-साथ और भी ओषधियों का सेवन और पौष्टिक व बल वर्द्धक आहारों का उपयोग करना आवश्यक है। रक्त-पित्त और गला बैठ जाने पर भी इसके उपयोग से लाभ होता है। 

यदि वीर्य वाहिनी नाड़ियों की कमजोरी से नपुंसकता उत्पन्न हुई तो उसमें भी यह घृत लाभ करता है, परन्तु लगातार तक कुछ दिनों तक सेवन करने से ही लाभ होता है। यह घृत शुक्र में बीज शक्ति को उत्पन्न करता है एवं स्त्रियों के भी डिम्बकोषों में बीज धारण शक्ति उत्पन्न करता है। यह घृत हृदय के लिए हितकर है, बल वर्द्धक और रसायन है।

 

7. कुमार कल्याण घृत

शंखाहुली, बच, ब्राह्मी, कूठ, हरड़, बहेड़ा, आंवला, मुनक्का, मिश्री, सोंठ, जीवन्ती, जीवक, बरियार, कचूर, धमासा, बेल, अनार, तुलसी, सरिबन, नागरमोथा, पुष्करमूल, छोटी इलायची, छोटी पीपल, खस, गोखरू, अतीस, आकनादि पाठा. वायविडंग, देवदारू, मालती के फूल, महुआ के फूल, पिण्ड खजूर, मीठे बेर और वंशलोचन प्रत्येक समान भाग लें। इनको कूट पीस कर कपड़ छान करके जल में पीस कर उससे चौगुना गाय का घी और दूध तथा छोटी कटेरी का क्वाथ घी से चौगुना मिलाकर घृत-पाक विधि से पकावें। जब घृत तैयार हो जाये तब कपड़े से छान कर शीशी में भरकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनपान-

 (बच्चों के लिए) 3 माशा से 6 माशा तक गाय के गर्म दूध में डालकर पिलायें।

गुण व उपयोग-

इस घृत के सेवन करने से बल, वर्ण, रूचि, जठराग्नि, मेधा और कान्ति बढ़ती है। दाँत निकलने के समय बालकों को इस घृत का सेवन कराने से बिना उपद्रव के दांत निकल आते हैं। बालशोष (सूखा) रोग में 3 माशा इस घृत में गोदन्ती भस्म 2 रत्ती तथा सितोपलादि चूर्ण 4 रत्ती मिलाकर रोगी बालक को चटाने से बहुत ही अच्छा लाभ होता है। कुछ ही समय में बच्चे का शोष रोग नष्ट होकर, बच्चा निरोग (हृष्ट-पुष्ट) हो जाता है। बालकों को होने वाली कुक्कुर खाँसी/कुत्ता खाँसी (हृपिंग कफ) में भी 3 माशा इस घृत में सितोपलादि चूर्ण 6 रत्ती मिलाकर दिन में 2-4 बार सेवन कराने से रोगी बच्चे को बहुत जल्द आराम होता है।

8. चैतस घृत

शालिपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी व बड़ी (दोनों) कटेली, गम्भारी की छाल, गोखरू, रास्ना, एरण्डमूल, खरेंटी, निशोथ, मूर्वा और शतावरी प्रत्येक 8-8 तोला लेकर 16 गुना पानी में पकाकर, चौथाई भाग जल शेष रहने पर उतार कर छान लें। तदुपरान्त इसे (पीछे)-“कल्याण घृत” में लिखी हुई ओषधियों का कल्क तथा कल्क से चौगुनी मात्रा में गाय का घी मिलाकर घृत को घृतपाक विधिनुसार सिद्ध करके सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपान –

 (वयस्कों के लिए) 6 माशा से 1 तोला तक गर्म जल या गाय के गर्म दूध के साथ सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

इस घृत का उपयोग प्रायः मानसिक रोगों में सफलतापूर्वक किया जाता है। उन्माद रोग की प्रारम्भिकावस्था में इस घृत के सेवन से बहुत ही लाभ होता है। इसी प्रकार हिस्टीरिया, अपस्मार (मिरगी), मूर्च्छा, सन्यास, आदि रोगों में भी इसके उपयोग से रोगी का अत्यन्त उपकार होता है।

9. चित्रकादि घृत

चित्रक, जीरा धनिया, अजवायन, त्रिकुटा, अम्लवेत, पाठा, बेलगिरी, अनारदाना, जवाखार, पीपलामूल तथा चव्य का कल्क 1-1 तोला तथा जल पौने 54 छटांक 1 तोला और गाय का घी 64 तोला लेकर सभी को एकत्र मिलाकर घृतपाक विधिनुसार सिद्ध करके सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपान –

 (वयस्क रोगियों के लिए) 1 तोला से 1½ तोला तक गर्म जल के साथ दें।

गुण व उपयोग-

यह घी अग्नि प्रदीपक गुण से भरपूर है तथा प्लाही/तितली, गुल्म, सूजन, उदार रोग, बवासीर आदि रोगों में विशेष हितकर है। इसके अतिरिक्त संग्रहणी, पुराना अतिसार, अरूचि, अफारा आदि रोगों में भी इसके उपयोग से बहुत लाभ होता है। यह घृत मन्दाग्नि को दूर कर भूख बढ़ाता है तथा बढ़े हुए वायु व पित्त को शान्त करता है।

10. जात्यादि घृत (मरहम)

चमेली के पत्ते, नीम के पत्ते, परवल के पत्ते, हल्दी, दारू हल्दी, कुटकी, मंजीठ, मुलहठी, मोम, करन्ज की गिरी, खस, अनन्त मूल और तूतिया-इस सभी को समान मात्रा में लेकर, कल्क बना लें। कल्क से चौगुना मात्रा का घी और घी से चौगुना पानी डालकर पकावें।

विशेष-

कल्क द्रव्यों को कपड़छान करके, घी में मिलाकर 7 दिन तक धूप में रखकर, उसके उपरान्त कल्क द्रव्यों सहित घृत को पात्र में भरकर रख लें। इस को मरहम (आयण्टमेन्ट OINTMENT) की तरह फोड़ा-फुन्सी, नाड़ी-व्रण, आदि पर लगाना अत्यन्त गुणकारी है। बहुत से अनुभवी वैद्यगण इस प्रकार बनाकर भी प्रयोग करते हैं।

गुण व उपयोग-

यह घृत नाड़ी व्रण (नासूर), पीड़ायुक्त व्रण तथा जिस व्रण से रक्त निकल रहा हो, उस व्रण को एवं मकड़ी के घाव, अग्नि से जलने और गहरे घावों को भी ठीक करता है। इस (जात्यादि घृत) को मरहम की भांति लगाने से मर्म स्थानों के घाव, पीपयुक्त और अधिक फोड़ा युक्त घाव आदि भरकर अच्छे हो जाते है

11. महा त्रिफलादि घृत

त्रिफला क्वाथ, भांगरे का रस, बांसे का रस, शतावरी का रस, बकरी का दूध, आंवला का रस, गिलोय का रस और गाय का घी प्रत्येक 64.64 तोला लेकर इन सबको एकत्र करके इन ओषधियों का कल्क डालें। त्रिफला, पीपल, मुनक्का, मिश्री, मुलहठी, नीलोफर, कटेरी, गुडूची और क्षीर काकोली इन सबको मिलाकर 8 तोला लें। तदुपरान्त सबको एकत्र मिलाकर पकावें। जब समस्त जलांश भाग जल जाये तब घी को छानकर सुरक्षित रख लें।

विशेष-

कल्क अष्टमांश लेने से द्रव पदार्थ द्रव द्वैगुण्य परिभाषानुसार द्विगुण हो गये है।

मात्रा व अनुपान – 

(वयस्कों के लिए) 6 माशा से 1 तोला तक समान भाग मिश्री मिलाकर दिन में 2 बार सुबह-शाम सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

त्रिफला घृत के सेवन करने से रक्तदुष्टि, रक्तस्त्राव, रतौन्धी (रात में दिखायी न देना), तिमिर, आँखों में अधिक दर्द होना, आँखों से कम दिखायी देना, समस्त प्रकार के नेत्र विकार तथा शारीरिक कमजोरी आदि दूर होती है।

*आयुर्वेद शास्त्र में त्रिफला की महिमा वर्णन का विशाल भण्डार है। केवल त्रिफला जल से सुबह के समय आँखों के धोने से और रात्रि के समय (भोजनोपरान्त सोते समय) त्रिफला चूर्ण समान भाग मिश्री मिलाकर जल के साथ सेवन करने मात्र से आँखों की ज्योति (नजर) बढ़ जाती है। फिर इस घृत सेवन की तो बात क्या है?

*यदि पित्त वृद्धि के कारण आँखें में कष्ट हो, जैसे-आँखें अधिक सुर्ख हो जाना, आँखों की पलकें सूज जाना, रोशनी/प्रकाश में आँखें नहीं खुलना, रोहे बढ़ जाना, दर्द होना आदि लक्षण होने पर त्रिफला घृत को मिश्री मिलाकर सेवन करने से तथा साथ ही (रात्रि के समय त्रिफला के यवकूट चूर्ण को जल में भिगोकर तथा प्रातः समय मसल छान कर उससे यानी) त्रिफला जल से प्रातः समय आँखों के धोने से और रात के समय त्रिफला चूर्ण और मिश्री 3-3 माशा मिलाकर जल से या गाय के दूध के अनुपान के साथ सेवन करने से शीघ्र ही लाभ होता है।

*वैसे भी जिन लोगों को नेत्र रोगों के कष्ट की शिकायत निरन्तर बनी रहती हो, यदि वे भी नियमित रूप से कुछ दिनों इस घृत का सेवन करें तो आँखों के कष्ट विकार दूर हो जायेगा तथा साथ ही शरीर में रक्त वृद्धि होकर शरीर भी पुष्ट हो जायेगा। यदि इस प्रयोग के साथ ही मिलाकर 3-3 रत्ती सप्तामृत लौह का भी सेवन किया जायें तो और भी अधिक श्रेष्ठ लाभ होता है। इससे नेत्रों की इतनी ज्योति बढ़ती है कि नजर का चश्मा (ऐनक) लगाने को ही आवश्यकता नहीं रहती है।

12. दूर्वादि घृत

दूब, अनार के फूल, मंजीठ, कमल, केशर, गूलर के फूल, खस, नागरमोथा, सफेद चन्दन, प‌द्माख, अड्सा के फूल, केशर, गेरू और नागकेशर-प्रत्येक ।.। तोला लेकर, कपड़ छान चूर्ण बनाकर जल में पीस कर कल्क बना लें। तदुपरान्त उसमें बकरी का दूध, गाय का दूध, पेठा का रस, आयापान का रस और चावलों का पानी-प्रत्येक 64.64 तोला मिलाकर मन्दी आग पर पकावें। जब घृत सिद्ध हो जाये तब नीचे उतारकर उसको कपड़े से छानकर सुरक्षित रख ले|

मात्रा व अनुपान-

 (वयस्कों के लिए) 6 माशा से 1 तोला तक समान भाग मिश्री मिलाकर दिन में 2 बार (प्रातः व सायं समय) सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह दूर्वादिघृत-मुख से रक्त आता हो तो पीने को देना चाहिए। नाक से रक्त आता हो तो नस्य देना चाहिए। कान या आँख से रक्त आता हो तो कान या आँख में डालना चाहिए तथा लिंग, योनि अथवा गुदा से रक्त आता हो तो उत्तरबस्ति अथवा अनुवासन बस्ति द्वारा प्रयोग करना चाहिए।

रक्त पित्त रोग में-पित्त की विकृति से रक्त दूषित होकर वायु द्वारा कभी ऊपर, कभी नीचे तथा कभी रोमछिद्रों द्वारा बाहर निकलता है। यद्यपि इस रोग में कफ भी विकृत हो जाता है, परन्तु पित्त का विशेष प्रकोप रहता है। अतएव प्यास सागराना, शरीर में दाह/जलन, मुँह सूखना, चक्कर आना, शीतल पदार्थों को खाने की आधिक इच्छा होना आदि लक्षण होते हैं। ऐसी अवस्था में इस घृत के उपयोग से शीघ्र ही लाभ होता है। साथ ही प्रवालपिष्टी, कहरवापिष्टी, अशोकारिष्ट आदि ओषधियों में से किसी भी ओषधि का यथोचित मात्रा में सेवन भी कराना चाहिए और पथ्यापथ्य का पालन करना चाहिए।

13. पञ्चगव्य घृत

1 दशमूल त्रिफला, कुड़ा की छाल, मूर्वा, भारंगी, छतिबन, गजपीपल, अपामार्ग, अमलताश और कठ गूलर की छाल-प्रत्येक समान भाग मिश्रित 1 सेर की मात्रा में लेकर अधकुटा करके 8 सेर जल में पकावें। जब 2 सेर जल शेष रहे तब उतार छान कर रख लें। तदुपरान्त त्रिफला, चिरायता, त्रिकुटा, चित्रक, पाठा, दारूहल्दी, निशोथ, सारिवा (दोनों), कुटकी, पुष्करमूल, जवासा, बच, नील का पंचांग, वायविडंग और दन्तीमूल प्रत्येक समान भाग मिश्रित 20 तोला लेकर कल्क बना लें।

 उसके उपरान्त क्वाथ व कल्क और गाय का घी, गाय के गोबर का (कपड़े से छाना गया) रस, गाय का दूध व दही और गोमूत्र प्रत्येक 2-2 सेर लेकर सभी को एकत्र मिलाकर घृत विधि-विधान से पकायें। जब घी मात्र ही शेष रहे तब छानकर सुरक्षित रख लें और उपयोग में लावें।

मात्रा व अनुपान –

(वयस्कों के लिए) 5 माशा से 1 तोला तक गर्म जल में मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

मुख्यता इस घृत का उपयोग समस्त प्रकार के उन्माद और अपस्मार, क्षय, श्वास, गुल्म, उदर व पेट दर्द में किया जाता है। पेट, वृषण (फोता/ अण्डकोष) और हाथ-पैरों पर सूजन (शोथ) आ गयी हो तो उसमें भी यह घृत अत्यन्त ही लाभकारी है।

* यदि जुलाब (विरेचन) के बाद इस घी का सेवन किया जाये तो पेट मे वायु नहीं भरती है एवं मल की गुठलियाँ भी नहीं बनती है। इसके अतिरिक्त भगन्दर, पाण्डु रोग, दमा, कामला, खाँसी, थोड़ा बहुत ज्वर, बाल ग्रह विशेषकर धातुक्षीणता, नलाश्रित वायु आदि रोगों में भी इस घृत के प्रयोग से बहुत लाभ होता है।

14. पुराना घृत

अच्छे उत्तम गाय के घी को लेकर किसी चीनी मिट्टी के पात्र या कांच के अमृतबान में भरकर भली प्रकार ढक्कन बन्द करके 5 वर्ष पर्यन्त रखें। तदुपरान्त इसका उपयोग में लावें।

 गुण व उपयोग-

यह 5 वर्ष पुराना गाय का घी अनेकों रोग विकारों में ताजा घी की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ, लाभकर तथा उत्कृष्ट मेंधा वर्धक है। इस घी की मालिश करने से छाती का जमा हुआ कफ, ढीला होकर सरलता पूर्वक बाहर निकल जाता है। विशेषकर पार्श्व शूल और न्यूमोनिया में उत्कृष्ट लाभ होता है। उन्माद अपस्मार और अनिद्रा को भी नष्ट करने में विशेष उपयोगी है।

15. फल घृत

मंजीठ, मुलहठी, कूठ, हरड़, बहेड़ा, आंवला, हल्दी, दारू हल्दी, अजवायन, चीनी, शुद्धहींग, कुटकी, नीलोफर, श्वेत कमल फूल, लाल (रक्त) व श्वेत (सफेद) चन्दन, मेदा, काकोली, क्षीर ककोली, मुनक्का, असगन्ध, खरेंटी, काकोली और क्षीर काकोली-प्रत्येक 1-1 तोला लें और कूट पीस कर व छानकर चूर्ण बना कर जल में पीस कर कल्क बना लें। तदुपरान्त उस कल्क में गाय का घी 118 तोला, शतावरी रस 512 तोला और इतनी ही मात्रा (512 तोला) गाय का दूध लेकर सभी को एकत्र मिलाकर घृतपाक विधिनुसार पकायें। जब घृत मात्र शेष रहे तो उसको छानकर कांच के साफ बर्तन में भरकर सुरक्षित रख लें|

विशेष-द्रव पदार्थों को द्रव द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार द्विगुण लिया गया है। कल्क में लक्ष्मण (सफेद फूल की कटेरी) की जड़ 1 तोला मिलाने से और भी विशेष गुणकारी बनता है।

काकोली और क्षीर काकोली का उपरोक्त योग में 2 बार उल्लेख है। अतः 2 बार ही (यानी दोगुना) लेना चाहिए।

मात्रा व अनुपान –

 (वयस्कों के लिए) 6 माशा से 1 तोला तक, समान भाग मिश्री का चूर्ण मिलाकर दें तथा ऊपर से गाय का उबला हुआ गुनगुना दूध पिलायें।

गुण व उपयोग-

फलघृत का स्त्रियों को सेवन कराने से उनके शरीर या कमर में दर्द होना और गर्भाशय की कमजोरी दूर होती है तथा इससे गर्भ का पोषण भी होता है। निरन्तर कुछ दिनों तक इस घृत का सेवन करने से स्त्रियों का आर्त्तवदोष और पुरुषों का वीर्य दोष दूर होता है। जिस स्त्री को बार-बार गर्भपात हो जाता हो अथवा मृत शिशु या अल्पायु सन्तान पैदा होती हो, एक शिशु (सन्तान) पैदा होने के बाद पुनः गर्भधारण न होता है। 

(सन्तान पैदा न होती हो) तो ऐसी अवस्था में इस घृत का सेवन करने से दीर्घायु, बुद्धिमान और हृष्ट-पुष्ट बच्चा पैदा होता है। अनेकों सन्तान रहित बांझ (स्टेरिलिटी से पीड़ित) स्त्रियों को भी इसके प्रयोग से सन्तान पैदा होते देखा गया है। जिस गाय का बछड़ा अपनी माता (गाय) के रंग का हो तथा जीवित हो उसके घी से इस घृत को बनाने से यह घृत विशेष गुणकारी बनता है। (ऐसा “शाङ्गधर संहिता” का रचियता का मत है।

16. शतावरी घृत

शतावरी का रस अथवा काढ़ा और गाय का दूधा 256-256 तोला, गाय का घी 128 तोला लें और जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीर काकोली, मुनक्का, मुलहठी, मुद्द्मपर्णी, माषपर्णी, बिदारी कन्द और लाल चन्दन-प्रत्येक 1- 1 तोला व 4 माशा लेकर कल्क बनाये। तदुपरान्त क्वाथ, घृत, कल्क व दूध इन सभी को एकत्र मिलाकर घृत पाक करें। जब घृत सिद्ध हो जाये तब छान लें तथा उसमें मिश्री 8 तोला और शहद 8 तोला मिलाकर सुरक्षित रख लें।

विशेष-द्रव पदार्थों को द्रव द्वैगुण्य परिभाषानुसार द्विगुण लिया गया है। अनुभव द्वारा ऐसा देखने में आया है कि घृत छानने के बाद उसमें मिलाये जाने वाले मिश्री+शहद ठीक प्रकार से नहीं मिल पाते हैं। अतः घृत छानने के बाद इनको न मिलाकर, इस घृत को सेवन करते समय रोगी को घृत की मात्रा से षोडशांश मिश्री चूर्ण और इतनी ही मात्रा में शहद मिलाकर सेवन करते हेतु निर्देश दे देना चाहिए।

मात्रा व अनुपान –

 (वयस्क रोगियों के लिए) 3 माशा से 6 माशा तक मिश्री के साथ चटाकर ऊपर से गाय के दूध सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

शतावरी घृत के सेवन करने से रक्त पित्त रोग नष्ट होता है। यह घृत उत्तम पौष्टिक व शीत वीर्य तथा बाजीकरण है। वातरक्त और क्षीण शुक्र रोगियों के लिए यह घृत अत्यन्त ही हितकर है तथा अंगदाह, शिरोदाह, पित्त ज्वर, योनिशूल, दाह, मूत्रकृच्छ्र (विशेषकर पैत्तिक योनिशूल) शीघ्र ही नष्ट होते है। यह घृत शरीर के बल, वर्ण, कान्ति तथा वीर्य की वृद्धि कर शरीर को पुष्ट करता है।

5/5 - (7 votes)