*गुटिका/वटी (gutika /vati)या capsules-
ओषधियों को कूट पीस कर व कपड़छान करके शहद, गुड़, खाण्ड, आदि की चाशनी में मिलाकर अथवा ओषधियों को पानी, स्वरस अथवा क्वाथ आदि में पीस कर अथवा पाक करके जो गोलियाँ बनायी जाती है, उनको ही गुटिका/वटी (गोलियाँ) कहा जाता है। गालियों को हाथ से बनाने पर वे छोटी-बड़ी भी बन सकती है यानी ठीक आकर (साइज) की नहीं बन पाती है। गोलियाँ मशीन द्वारा बनाने पर एक निश्चित साइज की बनती है। ऐसा करना ही अच्छा है।
यदि गोलियों को धूप में सुखाने के लिए निर्देश दिया गया हो तो ही धूप में सुखाना चाहिए अन्यथा गोलियों को छाया में ही सुखाना चाहिए। क्योंकि धूप और छाया के प्रभाव से भी ओषधियों के गुण में अन्तर पड़ता है। आजकल ओषधियों को सुखाने के लिए बाजार में बिजली की “शोषण मञ्जूषिका” (Electrical Dry Chamber) उपलब्ध है।
इनका प्रयोग छोटी-बड़ी समस्त रसायन शालाओं में किया जा रहा है। इनमें एक निश्चित तापमान पर ओषधियों, गोलियों और चक्रिकाओं (टेबलेट) के लिए बनाये गये दानें (मैन्यूल्स Granules) आदि को सब मो में दर्द-गुबार, वर्षा आदि विघ्नोरहित बड़ी ही सुविधापूर्वक * स्वादिष्ट, पाचक ( सुखाया जा सकता है। हाजमा करने वाली) गोलियों का सेवन भोजनोपराना दिन में 2 बार तथा रोगनाशक/रोगनाश हेतु गोलियों का सेवन दिन में 2 बार (सुबह-शाम) रोगानुसार किसी उचित अनुपान के साथ करना चाहिए।
*जिन वटियों में कुचला अथवा अफीम हो उनकी मात्रा/खुराक (डोज Dosage) । गोली से अधिक नहीं होनी चाहिए। स्वादिष्ट/जायकेदार व पाचक (डायजेस्टिव) गोलियाँ बिना अनुपान के भी मुख में रखकर चूस कर प्रयोग की जा सकती है। मात्रा जितनी लिखी हो, उससे कम अधिक करने से हानि भी हो सकती है। कम खाने से गुण नहीं करती है और अधिक खाने से शरीर में लाभ के बदले हानि पहुँचाती है। बच्चों को आयु के अनुसार उचित मात्रा में ही ओषधि सेवन करानी चाहिए।
1. चंदनादि वटी(chandnadi vati processing in hindi)-
~ निर्माण विधि-
सफेद चन्दन का बुरादा, छोटी इलायची के बीज, कबाब चीनी, सफेद शल गन्धबिरोजा का सत्व तथा कत्था और आँवला प्रत्येक 4-4 तोला गेरु 2 तोला और कपूर 1 तोला लें और कपड़छान चूर्ण बनाकर उसमें 1 चौथाई तोला उत्तम चन्दन तेल (इत्र) और रसौत 4 तोला मिलाकर 3-3 रत्ती वजन की गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें।
~विशेष-
रसौत शुद्ध करके अथवा दारूहल्दी क्वाथ से बनाकर डालें।
~मात्रा व अनुपान-
2 से 4 गोली (वयस्कों के लिए) दिन में 3-4 बार रोगी को ताजा ठण्डे जल से सेवन करायें अथवा गाय के दूध की लस्सी के अनुपान के साथ या शर्बत खश अथवा शर्बत चन्दन के साथ दें।
~गुण व उपयोग-
यह मूत्र त्याग के समय होने वाली मूत्र जलन तथा मूत्र में मवाद (PUS) जाने की अति उत्तम ओषधि है। मूत्र कृच्छ्र या सूजाक (गनोरिया) रोग हो जाने पर-मूत्र में भयंकर जलन, कड़क और वेदना होती है तथा मूत्र-मार्ग से मवाद आने लगता है। ऐसी स्थिति में चंदनादि वटी के उपयोग से रोग के समस्त उपद्रव दूर होते हैं और अन्दर के घाव भी अच्छे हो जाते हैं तथा गिरता हुआ मवाद रुक जाता है।
*मूत्रकृच्छ-
इस रोग में इस ओषधि का उपयोग करने से मूत्र साफ-स्वच्छ और खुलकर लाने के लिए सफलतापूर्वक किया जाता है। क्योंकि यह ओषधि शीत वीर्य प्रधान और मूत्र नली शोधक होने के कारण इस रोग में अत्यन्त ही उपयोगी है।
*सुजाक-
इस रोग का विष शरीर में प्रवेश करते ही अथवा 2-3 दिन के बाद ही रोग के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। रोग की प्रारम्भिकावस्था में- मूत्र नली का मुख सुरसुराता और खुजलाता है। मूत्र गर्म व लाल होती है और उसमें कुछ जलन भी होती है तथा मवाद भी आने लगता है। तदुपरान्त सूजाक रोग की असली अवस्था प्रारम्भ होती है, जिसमें रोगी को मूत्र त्याग करते समय भयानक यन्त्रणा होती है और हरा, पीला या सफेद रंग का मवाद भी आने लगता है।
रात्रि को सोते समय लिंग/ जननेन्द्रिय उत्तेजित हो जाने के कारण रोगी को बहुत कष्ट होता है। जननेन्द्रिय के उग्र भाग में सूजन व अण्डकोष और पेडू में प्रदाह होता है, जिससे मवाद आत्ता रहता है। ऐसी अवस्था में-चन्दनादि वटी(chandnadi vati) के प्रयोग से रोगी को बहुत ही शीघ्र लाभ होता है। (क्योंकि इस ओषधि का सीधा प्रभाव-मूत्र नली पर पड़ता है तथा मूत्र विकार नाशक और व्रण रोपक गुण युक्त होने के कारण यह ओषधि इस रोग में शीघ्र ही रोगी का अत्यन्त कल्याण करती है।)
2. चंद्रप्रभा वटी(chandraprabha vati) -
~ निर्माण विधि-
कपूर कचरी, नागरमोथा, बच, गिलोय, चिरायता, हल्दी, देवदारु, अतीस, दारु हल्दी, पीपलामूल, चित्रक मूल छाल, धनिया बड़ी हरड़, बहेड़ा, आँवला, चव्य, वायबिडंग, गजपीपल, छोटी पीपल, सोंठ, कालीमिर्च, स्वर्ण माक्षिक भस्म, सज्जीखार, यवक्षार, सेंधा नमक, सोंचर नमक, सांभर नमक, छोटी इलायची के बीज, कबाब चीनी, गोखरु और सफेद चन्दन प्रत्येक 3-3 माशा, निशोथ, दन्तीमूल, तेजपात, दालचीनी, बड़ी इलायची और वंशलोचन-प्रत्येक 1-1 तोला, लौह भस्म 2 तोला, मिश्री 4 तोला, शुद्ध शिलाजीत और शुद्ध गुग्गुल 8-8 तोला लें।
सर्वप्रथम गुग्गुल को साफ-स्वच्छ करके लोहे के इमामदस्ता में कूटें। जब गूग्गुल नर्म हो जाये, तब उसमें शिलाजीत और भस्में तथा अन्य द्रव्य आषिधियों का बारीक कपड़छान पात्र क्रमशः मिलाकर 3 दिन तक गिलोय के स्वरस में मर्दन करके 3-3 रत्ती वजन को की गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रख लें।
~मात्रा व अनुपान –
1 से 3 गोली तक (वयस्क मात्रा) दिन में 2 बार प्रातः सायं धारोष्ण गाय का दूध या गुडूची क्वाथ, या दारूहल्दी का रस या बिल्वपत्र रस अथवा गोखरु क्वाथ या मात्र शहद में मिलाकर दें।
~गुण व उपयोग-
यह वटी (ओषधि) मूत्रेन्द्रिय और वीर्य विकारों की अत्यन्त ख्याति प्राप्त ओषधि है। यह बल को बढ़ाती है तथा शरीर का पोषण करक कान्ति/सौन्दर्य की वृद्धि करती है। प्रमेह और उनसे उत्पन्न उपद्रवों पर इसका धीरे- धीरे किन्तु स्थायी प्रभाव होता है। सूजाक, आतशक आदि रोगों के कारण मूत्र व वीर्य में जो विकार उत्पन्न होते हैं यह ओषधि उनको नष्ट कर देती है।
मल-मूत्र के साथ वीर्य का गिरना, बहुमूत्र, स्त्रियों का श्वेत प्रदर रोग, वीर्य दोष, मूत्रकृच्छ, मूत्राघात, अश्मरी, भगन्दर, अण्डवृद्धि, पाण्डु, अर्श, कटिशूल, नेत्ररोग एवं स्त्री-पुरुष के जननेन्द्रिय विकारों में चन्द्रप्रभावटी के उपयोग से अत्यन्त लाभ होता है। इसके उपयोग से मूत्र में जाने वाला एल्ब्यूमिन इससे शीघ्र ही बन्द हो जाता है।
मूत्र की जलन, रुक-रुककर देर में मूत्र त्याग होना, मूत्र में चीनी (शुगर) आना यानी मधुमेह (डायबिटीज), मूत्राशय की सूजन और लिंगेन्द्रिय की कमजोरी इसक प्रयोग से आराम (ठीक) हो जाती है। यह वीर्य में नवीन शुक्र-कीटों को उत्पन्न करती है तथा रक्ताणुओं का शोधन और निर्माण करती है। कमजोर थके हुए नौजवानों को इसका सेवन पथ्यापथ्य का पालन करते हुए अवश्य ही करना चाहिये|
* मूत्राशय में किसी भी प्रकार की विकृति होने से मूत्रदाह युक्त होना, मूत्र का रंग लाल, पेडू में जलन, मूत्र में दुर्गंध की अधिकता, मूत्र में कभी-कभी शर्करा भी आने लगना-इन लक्षणों में-चन्द्रप्रभावटी के उपयोग से रोगी का अत्यन्त कल्याण होता है। क्योंकि इस ओषधि का प्रभाव मूत्राशय पर विशेष रूप से होने के कारण वहाँ की विकृति दूर होकर मूत्र साफ और जलन रहित आने लगता है।
* वृक्क/मूत्रपिण्ड की विकृति होने पर-मूत्र की उत्पत्ति बहुत कम होती है, जिससे मूत्राघात सम्बन्धी भयंकर रोग-वात कुण्डलिका आदि उत्पन्न हो जाते हैं। मूत्र की उत्पत्ति कम होने अथवा मूत्र कम होने पर समस्त शरीर में एक प्रकार का विष फैलकर अनेक प्रकार के उपद्रवों को उत्पन्न कर देता है। जब तक यह विष मूत्र के साथ निकलता रहता है, शरीर पर इसका बुरा/हानिकर प्रभाव नहीं होता है, किन्तु शरीर में रुक जाने पर अनेक उपद्रव उत्पन्न हो जाते हैं।
ऐसी अवस्था में-चन्द्र प्रभा वटी के उपयोग से रोगी को बहुत लाभ होता है। साथ में (आवश्यकतानुसार) लोध्रासव अथवा पुनर्नवासव आदि का भी प्रयोग करना अत्यन्त ही लाभप्रद है। चन्द्र प्रभावटी के कारण से विकृति शीघ्र ही दूर हो जाती है और इसके मूत्रल (पेशाब अधिक लाने वाली) होने के कारण यह मूत्र भी साफ और खुलकर लाती है।
**सूजाक-
पुराने सूजाक रोग में इसका खूब सफलतापूर्वक प्रयोग आयुर्वेदज्ञों द्वारा किया जाता है। सूजाक पुराना (क्रोनिक) होने पर रोगी को जलन आदि जो द्वारा होती है, किन्तु मवाद थोड़ी मात्रा में आता रहता है। यदि इसका विष रस, रक्त आदि धातुओं में प्रविष्ट होकर उसके शरीर के ऊपरी भाग में प्रकट हो गया हो (यथा-शरीर में खुजली होना, छोटी-छोटी फुन्सियाँ हो जाना, लिंगेन्द्रिय पर चट्टे पड़ जाना आदि) तो ऐसी स्थिति में-चन्द्रप्रभावटी-चन्दनासव या सारिवाद्यासव के अनुपान के साथ रोगी को सेवन कराने से बहुत लाभ होता है।
यह रस, रक्त आदि धातुगत विषों को दूर करके धातुओं का शोधन करके एवं रक्त शोधन करके उससे होने वाले उपद्रवों को शान्त करती है। इसके सेवन करने से शीघ्र ही मूत्र खुलकर आने लगता है। –
* *गर्भाशय विकार-
चन्द्रप्रभा वटी गर्भाशय को शक्ति प्रदान कर उसकी विकृति को दूर करके शरीर को निरोग कर देती है। अधिक मैथुन/सम्भोग अथवा शीघ्र-शीघ्र सन्तान होने अथवा सूजाक, उपदंश आदि रोगों से कमजोर हो जाता है, जिससे स्त्री रोगिणी की कान्ति नष्ट हो जाती है, शरीर दुर्बल व रक्तहीन हो जाता है, भूख नहीं लगती है। मन्दाग्नि और वात प्रकोप के कारण सम्पूर्ण शरीर में दर्द होना, कष्ट के साथ मासिक धर्म आना, रजः स्त्राव कभी-कभी 10-12 दिनों तक निरन्तर होते रहना आदि उपद्रव होने पर चन्द्रप्रभा वटी के अशोक घृत के साथ दें। फलघृत के साथ भी देकर रोगिणी को लाभान्वित किया जा सकता है।
** शीघ्रपतन-
स्वप्नदोष अथवा अप्राकृतिक विधि द्वारा छोटी आयु में वीर्य का दुरूपयोग करने से वातवाहिनी और शुक्र वाहिनी नाड़ियाँ कमजोर होकर शुक्र धारण करने में असमर्थ हो जाती है जिसका परिणाम यह होता है कि स्त्री प्रसंग/सम्भोग के प्रारम्भ काल में ही पुरुष का शुक्र निकल जाता है अथवा स्वप्न दोष हो जाता है अथवा किसी नवयुवती को देखने पर अथवा उससे वार्तालाप करने मात्र से ही वीर्य निकल जाता है। ऐसी अवस्था में चन्द्रप्रभा वटी गिलोय के क्वाथ के साथ सेवन करने से अत्यन्त लाभ होता है।
**प्रमेय विकार-
वात पैत्तिक प्रमेह में चन्द्रप्रभा वटी का बहुत ही अच्छा प्रभाव होता है। वात प्रकोप के कारण बद्ध कोष्ठ हो जाने पर मन्दाग्नि हो जाती है। तदुपरान्त जीर्ण अपच, क्षुधानाश, अन्न के प्रति अरुचि, कभी-कभी प्यास अधिक लगना, शरीर शक्तिहीन अनुभव होना आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में चन्द्रप्रभा वटी के प्रयोग से प्रकुपित वायु शान्त होकर इससे उत्पन्न होने वाले उपद्रव भी शान्त हो जाते हैं और प्रमेह विकार भी दूर हो जाते हैं।
**शारीरिक दुर्बलता-
अधिक शुक्रक्षरण अथवा रजः स्त्राव हो जाने के कारण (स्त्री-पुरुष) दोनों की शारीरिवः कान्ति नष्ट हो जाती है। शरीर दुर्बल/कमजोर हो जाना, शरीर पीले वर्ण का हो जाना, मन्दाग्नि, अल्ला परिश्रम मात्र से साँस फूलना/हाँफना, आँखें नीचे धंस जाना, बद्धकोष्ठता भूख खुलकर न लगना, आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी अवस्था में-चन्द्रप्रभा वटी का उपयोग करने से रक्त आदि सप्त धातुओं की पुष्टि होती है तथा वायु का भी शमन होता है।