Aarogya Anka

आयुर्वेद दुनिया का प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है Ιऐसा माना जाता है की बाद मे विकसित हुई अन्य चिकित्सा पद्धतियों मे इसी से प्रेरणा ली गई है Ιकिसी भी बीमारी को जड़ से खत्म करने के खासियत के कारण आज अधिकांश लोग आयुर्वेद के तरफ जा रहे हैΙइस लेख मे हम आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़ी हर एक रोग और उसके इलाज के बारे मे बताएंगे Ιआयुर्वेद चिकित्सा के साथ सभी प्रकार के जड़ी -बूटी के बारे मे तथा आयुर्वेद के 8 प्रकारों से हर तरह के रोगों के इलाज के बारे मे बताया गया हैΙ सभी पोस्टों को पढे ओर जानकारी अवश्य ले ताकि आप भी अपना जीवन आरोग्य के साथ healthy बना सके| thanks . 

जिद्दी चर्मरोग(skin disease)सोरायसिस(psoriasis)

सोरायसिस(psoriasis)

वैसे तो सभी चर्म रोग अत्यंत हठी स्वभाव के होते है| छोटी-मोटी चिकित्सा से समान्य दद्रु(ringworm) भी ठीक नहीं होता| सोरायसिस(psoriasis) तो चर्मरोग(skin diseases) का सरमौर है| विश्व का सबसे दुर्धर्ष रोगों मे इसका प्रमुख स्थान है|

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने सन् 1841 ई० मे हेव्रा नामक वैज्ञानिक के प्रयत्नो से सोरायसिस (psoriasis) को स्वतंत्र रोग के रूप मे मान्यता दि है| परंतु आज से हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए चरक संहिता नामक आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ मे ‘मण्डल-कुष्ट’ के नाम से सोरायसिस का वर्णन प्राप्त है|  

सोरायसिस(psoriasis)

सोरायसिस स्ट्री-पुरुष , बाल-वृद्ध एवं युवा सबको समान रूप से होता है| फिर भी अपने देश मे स्त्रियों के अपेक्षा पुरुषों को यह अधिक होता है|

सोरायसिस छूत का रोग नहीं है| शरीर के किसी अंग प्रत्यंग पर इसका किसी प्रकार का घातक प्रभाव नहीं है| यह तो मात्र सौन्दर्य विनाशक रोग है| यदि इसका विकराल रूप न हो और कण्डूयन न होतो सोरायसिस के साथ आराम से जिया जा सकता है|  

सोरायसिस(psoriasis) होने का कारण-

यदि माता-पिता दोनों मे से किसी एक को यह रोग हो तो संतान मे 25% तक सोरायसिस होने की संभावना रहती है|यदि पति-पत्नी दोनों ही इस रोग से ग्रस्त हो तो 75% तक संतान मे रोग होने की संभावना होती है| बीस वर्ष के निरीक्षण और परीक्षण के बाद हम इस निर्णय पर पहुचे है की इस रोग का मूल कारण वंशानुगत होना ही है| वस्तुतः वंशपरंपरा से रोग नहीं प्रत्युत रोग की संभावना आती है| जहाँ उपयुक्त स्थिति और वातावरण प्राप्त होता है| वहाँ ही रोग अंकुरित हो जाता है|

अत्यंत संवेदनशीलता,तन्त्रिका-तन्त्रकी दुर्बलता, प्रणालिविहीन ग्रन्थियोंकी विकृति, पाचनसंस्थानकी खराबी, खान-पानकी अव्यवस्था, असंयमित जीवन, संयोगविरुद्ध भोजन, मानसिक दुर्बलता, संशयशील जीवन, चिन्ता, परेशानियाँ, जीवनकी विफलताएँ तथा एलर्जी आदिमें कोई भी कारण अथवा कारण समूह सोरायसिसको आनेके लिये प्रेरित कर सकता है।

कुछ रोग भी सोरायसिसके आगमनके कारण हो सकते हैं। चिरकालीन टान्सिल, गलशोथ, नजला, जुकाम, इनफ्लुएंजा, दीर्घकालीन पाचनसंस्थानको विकृति आदि भी सोरायसिसके कारण हो सकते हैं। फिर भी विश्वके चिकित्सा-वैज्ञानिक सोरायसिसके विषयमें एकमत नहीं हो पाये हैं।

सोरायसिसके लक्षण गहरे लाल रंग या गहरे ब्राउन रंगके मसूरके दाने-जैसे उभार शरीरपर प्रकट होते हैं। वे उभार पारदर्शी श्वेत परिधानमें लिपटे होते हैं। कभी-कभी तो उभार मात्र पिन हैड-जितना ही होता है। कोहनी, पिंडली, कटि, पृष्ठभाग तथा कानके पिछले भागपर प्रायः रोग प्रारम्भ होता है। स्थितिके अनुसार रोगका प्रसार होने लग जाता है। चकत्ते बढ़ते बढ़ते अधिक स्थान घेर लेते हैं। कभी-कभी रोग बहुत विकराल रूप धारण कर लेता है और सम्पूर्ण शरीरपर फैल जाता है। कई बार रोग नाममात्रका ही रहता है। जीवनभर रोगीको जरा भी कष्ट नहीं देता। कई बार तो रोगीको रोगको उपस्थितिका अनुमान भी नहीं होता। कई बार सोरायसिस एकाएक आता है और स्वयं अन्तर्धान भी हो जाता है।

अनेक रोगियोंको सोरायसिस सिरसे प्रारम्भहोता है। सोरायसिसको सिरकी रूसी (Dandruff) समझकर दृष्टिविगत कर दिया जाता है। परंतु जब वह केश-सीमाको लाँधकर मस्तककी ओर बढ़ने लगता है तो चिन्ताका कारण बन जाता और तभी इसका सही निदान भी होता है।

हमारी त्वचा के सैल की समान्य आयु 28-30 दिन है। इस कालखण्डमें पुराने सैल मरकर झड़ जाते हैं और नवीन सैल उनका स्थान ग्रहण कर लेते हैं। यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। हमें इसका पता भी नहीं चलता। यह व्यवस्था पूरी तरहसे कम्प्यूटराइज्ड है। जब प्रकृतिका यह कम्प्यूटर बिगड़ जाता है तो आधे-अधूरे नवीन सैल तीव्रगतिसे उत्पन्न होने लग जाते हैं और एक-दूसरेके नीचे एकत्र होने लग जाते हैं। त्वचामें एक उभार-सा बन जाता है। शरीर उनको जीवित रखनेके लिये रक्तसंचार जारी रखता है। यह रक्तवर्णका उभार ही सोरायसिस है। 

जो सैल मर जाते हैं, जिनके खूनकी सप्लाई बंद हो जाती है, उनको ही चाँदीकी चादर-जैसी पारदर्शी परत ऊपर चढ़ जाती है। इसी स्थितिको संहिताकारने ‘श्वेतारुणी’ शब्दके द्वारा वर्णित किया है। ये चकत्ते गोलाकार होते हैं। रिंगशेप्ड होते हैं। यही आयुर्वेदका ‘मण्डलम् परिमण्डलम्’ के द्वारा वर्णित मण्डल-कुष्ठ है, जिसे आजकी वैज्ञानिक भाषामें सब देशोंमें सोरायसिस (Psoriasis) के नामसे जाना जाता है। रक्तसंचार कुछ समयतक चालू रहता है तो यह उभार रक्ताभ रहता है और जब शरीर रक्त प्रदान करना बंद कर देता है तब यह मरकर श्वेत वर्णके छिलकोंके रूपमें झड़ता रहता है। 

शरीरका कोई भी भाग ऐसा नहीं है, जहाँ सोरायसिस न होता हो। हाथ, पाँव और उनके तल-भाग, कानके पीछेका भाग, कानके भीतर, नाखून, कटिका पृष्ठ-भाग, उदर, सिर, चेहरा, दाढ़ी, मूँछ, प्रजनन अङ्ग, जिह्वा कहीं भी रोगका प्रसार हो सकता है। संक्षेपमें कहें तो शरीरका कोई भी भाग सोरायसिसकी पकड़से बाहर नहीं है।

कण्डूयन (खुजली) सोरायसिसका लक्षण यद्यपि नहीं है तो भी इसमें खुजली बहुत ही कष्टप्रद रहती है। खुजलीके कारण सोरायसिसमें वृद्धि भी बहुत हो जाती है। खुजली प्रायः एलर्जीसे होती है। डिप्रेशन-चिन्ता-परेशानी आदि मानसिक कारणोंसे भी खुजलीका उपद्रव बढ़ जाता है। ऐसी दशामें खुजलीका निवारण प्रथम कर्तव्य बन जाता है। खुजली समाप्त होनेपर ही रोगसे मुक्ति मिलना सम्भव होता है।

आर्थराइटिस सोरायसिसका परम मित्र है। यह पाँच-सात वर्ष पुराना होनेपर संधिशूल हो जाता है। बहुत पीडादायक होता है। जबतक सोरायसिस नहटे संधिलके हटनेका काम ही नहीं है. सोरायसिसके हट जानेपर आर्थराइटिस शीघ्र चला जाता है।

चिकित्सा

 रोगी सर्वप्रथम चिकित्साके लिये एलोपैथी चिकित्सकके पास जाता है। वह वर्षों विकित्स करता है और अन्तमें यह कहकर रोगीको विदा कर देता है कि इसका कोई इलाज नहीं है। तदनन्तर वह होमियोपैथोकी शरणमें जाता है। फिर सब ओरसे निराश होकर रोगी जब थक जाता है एवं शारीरिक और मानसिक रूपसे टूट जाता है तब वह आयुर्वेदको शरण ढूँढ़ता है। यहाँपर यह किसी चमत्कारको खोजमें आता है। वह चाहता है कि वैद्यजी हाथके स्पर्शमात्रसे रोगको छूमंतर कर दें, क्योंकि रोगी पर्याप्त भात्रामें धन और धैर्य खो चुका होता है। आयुर्वेदशास्त्रोंमें सोरायसिसको सफल चिकित्सा वर्णित है।

सोरायसिस किसी सीमातक मानसिक रोग है। रोगीकी मनोदशाका रोग निवारणपर भारी प्रभाव पड़ता है। यदि रोगी दृढ़ निश्चय कर ले कि वह अवश्य ही स्वस्थ हो जायगा तो इस दृढ़ संकल्पशक्तिका परिणाम धनात्मक होता है।

प्रबल मनोबलके प्रतापसे एण्डोक्राइन सिस्टम प्रभावी हार्मोन रक्तमें छोड़ता है, उससे रोग-मुक्तिमें सहायता मिलती है।

सोरायसिसकी चिकित्सामें सूर्यकिरणोंका महत्त्वपूर्ण योगदान है ‘आरोग्यम् भास्करादिच्छेत्’ प्रातःकालीन सूर्यकी शीतल धूपमें धूपखान करना बहुत ही लाभप्रद है। ध्यान रहे ग्यारह बजेके बाद धूपस्नान नहीं करना चाहिये। जहाँ सूर्यस्रानकी सुविधा नहीं है, वहाँ विद्युत्‌की शक्तिसे पराबैंगनी किरणें बनाकर उनमें सूर्यखानके उपकरणोंका प्रयोग किया जाता है।

यदि रोगी थोड़ा धैर्य रखे और पथ्यपालनपूर्वक चिकित्सा करे तो रोगसे सदा-सदाके लिये छुटकारा पाया जा सकता है।

पथ्य-

सोरायसिसके रोगियोंको मलेरियाकी एलोपैथिक दवाइयाँ, दूध और दूधसे बने पदार्थ, हर प्रकारकी खटाइयाँ, मूली, प्याज, बैंगन, आलू, दाल, चाय, काफी, साफ्ट ड्रिंक्स आदि पदार्थ हानिकर हैं।

सोरायसिस – जैसे जटिल रोगकी चिकित्सा योग्य और विशेषज्ञ चिकित्सकको देख-रेखमें ही करनी चाहिये, यथासम्भव वही हितावह है। रोगकी कई स्थितियाँ बदलती रहती हैं। अतः समय-समयपर कई औषधियाँ बदलनी पड़ती हैं। जबतक चिकित्सक रोगके स्वभावको उपवंकि विषयमें तथा चिकित्साके विषयमें पूर्ण जानकारी न रखता हो. उसके लिये रोगमे पार पाना कठिन है। हाथ और पादतलकी त्वचा मोटी होती है। इसे ठीक करनेमें विलम्ब हो जाता है। घबड़ानेकी कोई बात नहीं है।

ध्यान रहे, सोरायसिसके उत्सेधमेंसे किसी प्रकारका भी साव नहीं होता। यह एक निश्चित लक्षण है। सोरायसिससे गंजापन भी नहीं होता। दुर्बलताके कारण अथवा केशभूमिमें सोरायसिसके उत्सेथ होनेके कारण यदि बाल झड़ने लगें तो उनका पुनरुद्भव सम्भव है।

शीत-अतुमें तथा वर्षा ऋतुमें सोरायसिस बढ़ सकता है। अतः इन दोनों ऋतुओंमें पथ्य और औषधिपर विशेष ध्यान देना हितकर रहता है। यह शाकाहारियोंकी अपेक्षा मांसाहारियोंको अधिक होता है। फलोंमें केला, सेब, पपीता, खजूर, बादाम आदि खाये जा सकते हैं। गाजर, शकरकन्द, काशीफल, तीनों प्रकारकी गोभी, पालक, लौकी, मेथी, दूधी आदि सब्जियाँ लाभप्रद हैं। सलादके रूपमें पालक, सलाद, पत्ता गोभी, गाजरको कच्चा खाना लाभदायक है। स्वादके लिये सलादपर सिरका डाला जा सकता है। अंगूर भी खाया जा सकता है, परंतु काला अंगूर अधिक लाभप्रद है। कभी-कभी यानी सप्ताहमें एक बार आधे नीबूके रसमें शहद और शीतल जल मिलाकर भी पिया जा सकता है।

चोकरवाली रोटी खायी जा सकती है। जी, बाजरा और ज्वारकी रोटी खाना दवाईके समान है। चावल खाया जा सकता है, परंतु लाल रंगके चावल बहुत ही हितकर हैं। चाय, काफी, तम्बाकू, शराब, सोडा वाटर, हर एक वह द्रव्य जिसमें प्रिजर्वेटिव रंग और सुगन्ध पड़ी हो, अपथ्य है। उनका सेवन नहीं करना चाहिये। खरबूजा और तरबूज भी पथ्य हैं। तरबूज और काशीफलके बीज पृथक् पृथक् रूपसे शरदाई (ठंढाई) की तरह घोटकर पिये जा सकते हैं।

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