पित्ताशय (gall bladder)-

उदरके दायी ओर ऊपरकी तरफ स्थित नवीं पसलीके पास यकृत्के निचले भागसे लगा हुआ लगभग 4 इंच लम्बा गाजरके समान आकृतिका पित्ताशय होता है। इसका मुख्य कार्य यकृत्में बने पित्तके एक अंशको इकट्ठा करना है। इसमें लगभग 45 सी०सी० पित्त जमा रहता है। जब भोजन आमाशयसे आगे बढ़ता है तो पित्ताशयके विक्षोभसे पित्त निकलकर भोजनमें मिल जाता है, जिससे भोजनके स्निग्धांश वसा और प्रोटीनका पाचन होता है।
स्वस्थ पित्ताशय २४ घंटेमें दो या तीन बार खाली हो जाता है। जब भोजन नहीं किया जाता है तो पित्त पित्ताशयमें इकट्ठा होता रहता है। इसका जलीय अंश पुनः शरीरमें पच जाता है, जिससे पित्त शनैः-शनैः पाँचसे दस गुनातक गाढ़ा हो जाता है।
पित्त(gall bladder)-
पित्त सुनहरे भूरे रंगका यकृत्का स्राव है। इसका स्वाद बहुत कड़वा होता है। यह पाचक रस होते हुए भी भयंकर विष है। यह लसलसा, क्षारमय, वसा और प्रोटीनका उत्तम पाचक है। आँतोंका उद्दीपक है और उन्हें क्रियाशील रखता है। पित्तमें छियासी प्रतिशत जलका अंश होता है इसमें पित्तीय लवण, पित्तीय रंजक, लेसिथिन और कोलेस्ट्रॉल होता है। यकृत्से पित्तका स्राव निरन्तर होता रहता है। भोजन करनेपर इसका उत्पादन कुछ अधिक मात्रामें होता है।
पित्ताशयमें एकत्रित पित्तका कुछ अंश पाचनक्रियामें व्यय होता है, कुछ बाहर निकल जाता है और अधिकांश शरीरमें जज्च हो जाता है। आँतोंमें पहुँचकर यह उनका पाचन करनेके साथ ही खाद्य पदार्थको सड़ने नहीं देता। यदि पित्त भोजनमें न मिले तो आँतोंमें उपस्थित खाद्यपदार्थ जल्दी ही सड़कर गैस उत्पन्न करने लगे।
पथरी(stone)-

पित्ताशय (gall bladder) की पथरी पुरुषोंकी अपेक्षा स्त्रियोंमें अधिक बनती है। लगभग 40-45 वर्षीय, स्थूल शरीरवाली महिलाएँ जो कार्बोहाइड्रेट तथा वसायुक्त भोजन अधिक मात्रामें लेती हैं, उनमें पथरी बननेकी सम्भावना अधिक रहती है।
पथरी(stone) बालूके कण और सरसोंके दानेके आकारसे लेकर अखरोट या अंडेके बराबर आकारकी होती है। इनकी संख्या एकसे लेकर पचासोंतक हो सकती है। ताजी पथरी नम और आर्द्र होती है। ये पथरियाँ काले, हरे, सफेद, खाकी आदि कई रंगोंकी होती हैं।
पथरी बनने के कारण-
पथरी बननेके निम्रकारण होते हैं一
1. पित्ताशय में पित्त अधिक समयतक रुका रहनेके कारण ५-१० गुना अधिक गाढ़ा होनेके बाद और भी गाढ़ा हो जाय और उसमें जीवाणुका संक्रमण हो जाय तो पथरी बन सकती है।
2. व्यायाम न करनेसे, बैठे रहनेसे, स्थूल व्यक्तियोंमें तथा गर्भावस्थामें पित्त अधिक देरतक संचित रहनेसे गाढ़ा हो जाता है। पित्ताशयको दीवारें क्षुभित होनेसे शोष हो जाता है और श्लेष्मस्राव होने लगता है। ये छोटे-छोटे श्लेष्मकण तह-पर-तह चढ़कर धीरे-धीरे पथरीका निर्माण कर देते हैं।
3. यकृत्की विकृतिके कारण पित्तका निर्माण ठीक-ठीक न होने, पित्तमें पित्तलवणका अनुपात कम होने या कोलेस्ट्रॉलकी मात्रा अधिक हो जानेपर कोलेस्ट्रॉल पित्ताशयमें नीचे अवक्षेपके रूपमें बैठने लगता है। श्लेष्मकणोंके चतुर्दिक इनकी तह बैठने लगती है। उसके ऊपर पुनः कैल्सियमकी तह बैठ जाती है। इस प्रकार तह-पर-तह बैठते रहनेसे छोटी छोटी पोले रंगकी पित्ताश्मरी बन जाती है।
4. गर्भावस्था तथा मधुमेहमें भी कोलेस्ट्रालकी वृद्धि हो जाती है, जिसके कारण पथरी निर्मित हो जाती है।
5. असन्तुलित अप्राकृतिक आहार-विहार भी पथरी बननेका मुख्य कारण है। आक्जैलिक एसिडयुक्त भोजनकी अधिकतासे कैल्सियमके कारण पथरीका निर्माण होता है। चॉकलेट, चाय, बिस्कुट, फास्ट फूड, डबलरोटी आदिमें आजैलिक एसिडको अधिकता होती है। हरी साग-सब्जी कम खाना, अधिक मात्रामें भोजन, क़ब्त होना, पानी कम पीना, गरिष्ठ मांसाहारी भोजन करनेसे यह रोग अधिक होता है।
6. अतिनिद्रा, मद्यपान, प्रदररोग, मानसिक तनाव और नाडीदौर्बल्यके कारण यकृत्रोगी हो जाता है। रोगी यकृत्में तैयार हुआ पित्त विकारयुक्त, गाढ़ा और चिपचिपा होता है, जो पित्ताशयमें जाकर प्रदाह और शोथ उत्पन्न कर देता है। दूषित पित्त और कफ सूखकर कड़े हो जाते हैं। इनपर सतह चढ़ते रहनेसे पथरी बन जाती हैं। ये पथरियाँ पित्ताशयमें पड़ी रहकर दिनोदिन बड़ी होती रहती हैं।
7. पित्त लवण और कोलेस्ट्रॉलका सामान्य अनुपात २५:१ का होता है। यदि किसी विकृतिके कारण यह अनुपात १३:१ हो जाता है तो पित्ताशयमें कोलेस्ट्रॉलका अवक्षेप बैठने लगता है जो समयपर पथरीका आकार ले लेता है।
8. पित्त (gall bladder) के निकलनेके मार्ग, पित्तवाहिनीमें किसी प्रकारकी रुकावट आनेके कारण पित्ताशय (gall bladder) में पित्त अधिक गाढ़ा हो जाता है। उसमें संक्रमण होनेपर पूय और श्लेष्म उत्पन्न हो जाते हैं जो पथरी उत्पत्तिके कारक हैं।
पथरी के लक्षण(symptoms)-
1. जब पथरी पित्ताशयसे निकलकर पित्तवाहिनीमें पहुँचकर अटक जाती है तो पित्तके मार्गमें अवरोधके कारण असह्य वेदना होने लगती है। यह शूल अत्यन्त दारुण होता है। दर्द उदरके दाहिनी और यकृत्के नीचेसे पित्ताशयमें आरम्भ होता है और वहाँसे पीठके निचले भागमें कंधेतक फैल जाता है। दर्दकी लहरें कुछ अन्तरालसे उठती रहती हैं। चीखने-चिल्लानेकी स्थिति आ जाती है। ठंडा पसीना छूटने लगता है। अधिक समयतक वेदना होनेपर दर्द अपने-आप ठीक हो जाता है।
2. अरुचि और अपच हो जाता है। भोजन करनेके बाद पेटमें भारीपन तथा आध्मान होने लगता है।
3. आमाशयमें शोधके कारण आमाशय और उसके आस-पास दर्दकी अनुभूति होती है।
4. उदरके दाहिने भागकी पेशियाँ कड़ी पड़ जाती हैं और उनमें स्पर्श-असह्यता उत्पन्न हो जाती है।
5. कभी-कभी ठंड लगकर ज्वर 102 तक हो जाता है। ऐसी स्थितिमें पीलियाके लक्षण भी प्रकट हो सकते हैं।
~चिकित्सा(treatment)~
~दर्द के समय-
आधुनिक चिकित्सामें दर्दनिवारक इंजेक्शन देते हैं। इससे तत्काल आराम मिलता है। वेदनाशामक ओषधियोंके प्रयोगसे दर्दकी अनुभूति तो नहीं होती, परंतु दर्दका कारण पथरी, अपने स्थानपर मौजूद रहती है। दर्दके कारणको दूर करनेका प्रयास करना चाहिये।
1. गरम पानीके टबमें बैठनेसे पित्तवाहिनीमें फँसी पथरी निकल जाती है। जबतक दर्द दूर न हो जाय गरम पानीके टबमें बैठे रहें। पानीके ठंडा होनेपर उसमें थोड़ी-थोड़ी देरपर गरम पानी डालते जाय।
2. यदि गरम पानीके टबमें बैठना सम्भव न हो तो गरम पानीसे भीगा तौलिया उदरपर रखें। थोड़ी-थोड़ी देरमें बदलते रहें। गरम पानीकी बोतल भी काममें लायी जा सकती है।
3. प्रातः लगभग एक लीटर पानीमें एक चम्मच नमक और एक नीबूका रस निचोड़कर पी लें। प्रत्येक पंद्रह मिनटपर यही क्रिया दोहराते रहें जबतक कि दर्द ठीक न हो जाय। इस बीचमें कुछ भी खाना-पीना नहीं चाहिये।
4. वेदना शुरू होनेका लक्षण प्रकट होते ही एनिमा तथा कटिस्नान या वाष्प-स्नान करें।
5. स्वच्छ हवादार स्थानमें पूर्ण विश्राम करें। ठीक होनेतक उपवास करें। वमन होनेपर बर्फका टुकड़ा चूसें। पानी न पियें।
6. गरम जल या जैतूनके तेलमें एक चम्मच नीबूका रस मिलाकर प्रत्येक घंटेपर पीते रहें।
7. पौष्टिक सुपाच्य आहार और कुलधीकी दालका पानी पीयें।
~दर्द के बाद-
1. आहार-विहारका असंयम और क़ब्ज दूर करनेका प्रयास करें।
2. पेडूपर प्रतिदिन ठंडे-गरम पानीकी सेंक तथा एनिमा लेना चाहिये।
3. वाष्प-स्रान तथा गरम पानीमें भीगा तौलिया कमरके चारों ओर लपेटे।
4. प्रतिदिन व्यायाम, प्राणायाम, यकृत्की मालिश करना चाहिये।
5. सप्ताहमें एक दिन उपवास करें। दिनमें केवल नीबूका पानी या फलोंका रस लें।
6. दूध, मलाई, पनीर, घी आदि वसायुक्त पदार्थोंका सेवन न करें। स्नेहहीन भोजन पथरीके रोगीको लाभप्रद होता है।
7. ताजा फल, कुलथीकी दाल, हरी साग सब्जी, मलाईरहित मट्ठा, शहद, फलोंका सलाद, जामुन, जामुनकी गुठली पथरी रोगमें गुणकारी है।
8. मांसाहारी भोजन, तले-भुने गरिष्ठ खाद्यपदार्थ, सूखा मेवा आदि कदापि न लें। मिर्च-मसाला, उत्तेजक खाद्यपदार्थ तथा मादक द्रव्यका स्पर्श न करें। ये पथरी रोगमें विषतुल्य हैं।
9. खीरा, गाजर, लौकी, पपीता, मूली, नीबूका रस निकालकर पियें।
10. प्रातः उठकर खाली पेट पानी पियें, दोपहरमें भोजनके साथ प्रतिदिन दो बार दो चम्मच हिंग्वाष्टक चूर्ण लें तथा रात्रिको सोते समय त्रिफलाचूर्ण ५ ग्राम तथा हरीतकी २ चम्मच गरम पानीसे लें।
11. योगासन (हलासन, धनुरासन, भुजंगासन, शलभासन, पश्चिमोत्तानासन, सर्वांगासन) तथा प्राणायाम नियमितरूपसे करें या प्रतिदिन प्रातःकाल सूर्यनमस्कार (11 बार) करें।
~आधुनिक चिकित्सा(modern treatment)~
उदरमें पथरीकी उपस्थिति एक विस्फोटकको तरह होती है जो किसी भी समय संकट उत्पन्न कर सकती है। अतः यह पता चलते ही कि पित्ताशयमें पथरी है, अच्छी तरह उपचार करना चाहिये। जब पित्ताशयमें पथरी बन गयी हो तो, अभीतक कोई ऐसी ओषधि नहीं बन पायी जो उसे किसी भी प्रकार गलाकर निकाल दे। कभी-कभी ऐसा होता है कि एक्स-रे में कोई पथरी दिखायी देती है। कुछ समय बाद यह पित्तवाहिनीसे होकर छोटी आँतमें स्वतः चली जाती है। यह पथरीके छोटे आकारके कारण संयोगवश ही होता है।
पित्ताशयमें पथरी उत्पन्न हो जानेपर उसका ऑपरेशन करके पथरी निकाल देना ही समुचित उपचार है। ऑपरेशन करते समय यदि कोई छोटी पचरी पित्तकी नली आदिमें रह जाती है तो भविष्यमें पुनः परेशानी हो सकती है। ऑपरेशन करके पथरी निकालनेके बाद भी रुग्ण पित्ताशय, समस्याएँ उत्पन्न करता रहता है। पित्ताशय, पथरी बननेकी एक आम जगह है। इसमें एक बार रोग हो जानेके बाद यह शरीरके लिये संवेदनशील हो जाता है। पुनः इसमें पथरी बनते रहनेकी अधिक सम्भावना रहती है।
~लिथोट्रेप्सी-
पित्ताशय पथरी निकालनेकी ऑपरेशनके अतिरिक्त एक अन्य पद्धति जिसे लिथोट्रेप्सी कहते हैं,
लिथोट्रेप्सी के द्वारा पथरीको सहज ही पराश्रव्य ध्वनितरंगोंद्वारा बारीक टुकड़ोंमें तोड़कर बाहर निकाल देते हैं। पित्ताशयकी पथरीके लिये ‘गॉल लिथोट्रिप्टर’ मशीनका प्रयोग करते हैं। इसमें न तो कोई चीरफाड़ करनी पड़ती है, न ही रोगीको बेहोश करना पड़ता है और न ही शरीरपर कोई दाग-धब्बे पड़ते हैं। मात्र आधे घंटेसे पैंतालीस मिनटतक ध्वनितरंगोंसे चिकित्सा होती है। सम्पूर्ण प्रक्रियामें मात्र ढाई-तीन घंटे लग जाते हैं।
इसके बाद रोगी आरामसे घर जा सकता है। सर्वप्रथम अल्ट्रासॉनिक तरंगोंद्वारा पथरीके स्थानका पता लगाकर इन पथरियोंको लक्षित करके ‘आघात तरंग प्रक्षेपक’ द्वारा उच्च आवृत्तिकी ध्वनितरंगें छोड़ो जाती हैं। तरंगोंकी दिशा और आवृत्ति पथरीके आकारके अनुसार
कम्प्यूटरकी मददसे सुनिश्चित की जाती है। तीससे पैंतालीस मिनटतक पराश्रव्य ध्वनितरंगोंको पथरीपर छोड़ते हैं, जिससे किसी भी आकारकी पथरी चूर-चूर हो जाती है। यह चूर्ण धीरे-धीरे आँतोंसे बाहर निकल जाता है। दर्द न हो इसके लिये स्थानीय संज्ञाशून्य करनेकी आवश्यकता होती है। इस विधिसे पुनः पथरी बननेकी सम्भावना कम रहती है।
इस रोगको पुनः न होने देनेके लिये नियमित दिनचर्या और आहार-विहार इस प्रकार रखना चाहिये कि रोग उत्पन्न ही न हो। प्रायः यह देखा गया है कि पथरी बननेके साथ ही शरीरमें स्थूलता भी आती जाती है। इसके लिये नियमित व्यायाम योगासन-प्राणायाम आदि करते रहना चाहिये।