शरीरको स्वस्थ रखनेके लिये तो हम शारीरिक व्यायाम करते हैं, परंतु मनको स्वस्थ रखनेके लिये कुछ नहीं करते। हमारा मन जब प्रदुष्ट होता है तो मनोरोग उत्पन्न होते हैं। मनको सर्वविध स्वस्थ और मनोविकारोंसे स्थायी रूपसे विरत रखनेकी कुंजी है- ‘विपश्यना’, जिसकी जड़ें तो भारतकी हैं, पर यह विद्या विदेशोंमें पल्लवित एवं पुष्पित होती रही है।

‘विपश्यना’ ध्यान आध्यात्मिक साधनाकी एक विधि है, जो मनुष्यके आचरणको सुधारकर उसको स्वस्थ जीवन जीनेकी कला सिखाती है। प्राचीन युगमें ऋषि-मुनियोंने आध्यात्मिक स्वास्थ्यकी दृष्टिसे जिस सात्त्विक जीवनपर बल दिया, वह सब कुछ विपश्यनासे सहज सुलभ है। नयी पीढ़ीमें कुछ मिथ्या धारणा बन गयी है कि ऐसी आध्यात्मिकताकी ओर केवल वे बूढ़े व्यक्ति अग्रसर होते हैं, जिन्हें समय बिताना कठिन होता है। जवानीमें ये सब बातें निरर्थक लगती हैं।
अभी तो मनोरंजन, कमाई और समाजमें स्थापित होनेके दिन हैं। मृत्यु परम सत्य होते हुए भी बड़ी दूर दिखायी देती है। कोई मरना नहीं चाहता, उसके विषयमें सोचना भी नहीं चाहता। उसके विषयमें न सोचनेके तरह-तरहके उपाय खोजता है, ताकि उसे भूला रहा जा सके। फिर जब व्याधियाँ बीमारियाँ शरीरपर दस्तक देने लगती हैं और सारी चिकित्सा पद्धतियाँ उसे दूर करनेमें नाकामयाब रहती हैं। मृत्यु साक्षात् सिरपर खड़ी दिखायी देती है, तब जीनेकी लालसा और बढ़ती है। तब वह रहस्यमयी आध्यात्मिक शक्तियों और क्रियाओंकी खोज करता है। शायद उससे कोई राहत मिले- दवाइयोंसे छुटकारा मिले।
प्रश्न उठता है कि आध्यात्मिक साधना क्या रोगोंको ठीक करनेमें मदद करती है? प्राकृतिक चिकित्साको मान्यता है कि ईर्ष्या-द्वेषके बाहुल्यसे तनाव बढ़ता है और मनुष्यमें बुढ़ापेके लक्षण कम उम्रमें ही आ जाते हैं। क्रोध तनावका कारण है और कुण्ठाका सम्बन्ध ‘हार्ट अटैक’ एवं ब्लडप्रेशर या पेप्टिक अल्सर (गैस्ट्रिक) जैसी बीमारियोंसे है। ब्लडप्रेशर कालान्तरमें फालिजका कारण बनता है।
भय एवं क्रोध पाचन क्रियाको खराब करते हैं और संग्रहणीके जनक हैं। अशान्ति और व्याकुलता मधुमेहको बढ़ाती हैं और उसके कारण भी हो सकते हैं। तनाव, बेचैनी, अशान्ति, भय, उदासी और अनिद्रा तो सर्वमान्य मनके रोग हैं ही तथा इन्हें दूर करनेके लिये मनुष्य नशेका सहारा लेने लगता है एवं उसे उससे भी बड़ा रोग नशेका लग जाता है।
नशेकी लत चाहे पानमें जरदेकी हो, चाहे पान- मसाले, गुटका, खैनी या गुलकी हो, चाहे सिगरेट, बीड़ीकी हो, चाहे भाँग, शराब या अफीमके सेवनकी हो सब तलबपर निर्भर है और तलब शरीरमें होनेवाली संवेदनापर निर्भर करती है। नयी पीढ़ीमें अब पेथेर्डान, हिरोइन, मेंड्रेक्स, कोकीन आदि नशेकी लत पड़ती जा रही है। किसी-किसीका तो इनके बगैर जीना दूभर होता दिखायी देता है। तलब हुई कि नशेकी ओर बढ़े और डूबते ही गये। इतनी भिन्न दिखनेवाली सारी बीमारियोंकी जड़ मनके विकार हैं, जिन्हें निर्मूल करनेमें कोई आध्यात्मिक साधना ही मदद कर सकती है।
‘विपश्यना’ साधनासे हम विकारसे विमुक्त हो सकते हैं और अन्ततः रोगमुक्त भी। यही इसका वैज्ञानिक पहलू है। आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धतिका भी मानना है कि मानसिक विकारों- जिनमें तनाव, दब्बू व्यक्तित्व, दूसरेपर निर्भरता, हीनताकी भावना, अहंकार, क्षमतासे अधिक महत्त्वाकांक्षा, ईर्ष्या आदि प्रमुख हैं-से अनेक रोग हो सकते हैं, जिन्हें मनोजन्य शारीरिक (साइकोसोमैटिक) रोग कहा जाता है।
इसमें प्रमुख हैं-
1.उदर-रोग-
गैस, पेटमें जलन, अलसर आदि।
2. फेफड़ेके रोग-
दमा।
3.हृदय-रोग-
रक्तचाप, हार्ट अटैक, एन्जाइना।
4. मस्तिष्क-रोग-
सिरदर्द, अर्धकपारी, शरीरमें जगह-जगह दर्द।
5. चर्म रोग–
एक्जमा , न्योरोडरपेटाइटिस, सोराइसिस आदि।
मनके विकार ही इन रोगोंके कारण हैं एवं वे ही इनका संवर्धन करते हैं। जब-जब इन रोगियोंके मन शान्त एवं विकाररहित होते हैं तो ये रोग घटने लगते हैं। मानसिक रोग जैसे-तनाव, उदासी, चिन्ता, अवसाद, अनिद्रा, हिस्टीरिया आदि तो मनके विकारोंसे उत्पन्न होनेवाले रोग ही हैं।
‘विपश्यना’ इन भिन्न दिखनेवाले रोगोंको मनमें निर्मलता लाकर ठीक करती है। ‘विपश्यना’ में पहले साँस और मन एकाग्र करना बताया जाता है। हम जानते हैं कि मन और साँसका गहरा सम्बन्ध है। भय, क्रोध आदि विकार जागनेपर साँस तेज चलने लगती है और इनके समाप्त होनेपर फिर अपनी सरल, साधारण धीमी गतिपर वापस आ जाती है। साँसमें जब मन केन्द्रित हो जाता है तो उसी क्षण मन विकाररहित होता है।
शनैः शनैः विकार-विहीन रहनेका समय बढ़ता जाता है और इसका प्रभाव सारे शरीरपर पड़ता है। देखा गया है कि हार्ट अटैकके रोगी यदि साँसपर ध्यान केन्द्रित करें तो उनकी धमनियोंमें जमी चर्बी कम होने लगती है और अवरोध धीरे-धीरे समाप्त होने लगता है। कम दवाओंपर ही या वगैर ऑपरेशन कराये ऐसा रोगी बिना किसी तकलीफके रह सकता है।
साँसमें एकाग्रता हमारे बाह्यचित्त (Concious mind) को शुद्ध करती है। इसके बावजूद विकारोंकी जड़ें नहीं निकल पातीं। इनकी जड़ें हमारे अन्तश्चित्त (Unconscious mind)-में हैं जो शरीरमें होनेवाली रासायनिक, विद्युतीय एवं चुम्बकीय क्रियाओंको बराबर जानती रहती हैं और अंधी प्रतिक्रिया करती हैं। समय और परिस्थितियाँ आनेपर विकार फिर सिर उठाने लगते हैं। यही हमारा स्वभाव होता है। यह अंधी प्रतिक्रया ही हमारे सारे विकारोंकी जड़ है। हम शरीरपर होनेवाली इन भिन्न जैव रासायनिक क्रियाओंको संवेदनाके माध्यमसे जानते हैं।
संवेदना सदैव होती रहती है। जब भी चित्त एकाग्र होकर शरीरके किसी भागसे सम्पर्क करता है- अनुभव करता है तो संवेदनाएँ महसूस होने लगती हैं। यदि हम संवेदनाओंके प्रति सजग नहीं हैं तो अंधेरेमें ही हैं। सुखद संवेदना हो तो उसे कायम रखने अथवा बढ़ानेकी प्रतिक्रिया और यदि दुःखद संवेदना हो तो उसे तुरंत दूर करनेकी प्रतिक्रिया और यदि असुखद अदुःखद संवेदना हो तो उससे ऊबकर उसे दूर करनेके लिये द्वेषकी और किसी सुखद संवेदनाको प्राप्त करनेके लिये रागको प्रतिक्रिया करते हैं।
जब हम यह प्रज्ञा (बुद्धि)-पूर्वक जानने लगें तो भोक्ता-भावकी जगह साक्षी-भाव जाग्रत् होगा। भोक्ता-भाव अपने-आप चला जायगा। यह देखा गया है कि जब साक्षी-भाव आ रहा है तो शरीरकी कोशिकाओंमें, आसवोंमें भी परिवर्तन होता है। इसी प्रक्रियासे विकारोंकी जड़ें निकलने लगती हैं और हमें मनोजन्य शारीरिक एवं मानसिक रोगोंसे छुटकारा मिलने लगता है। नशेके शिकार व्यक्तियोंमें देखा गया है कि वे नशेका सेवन इसलिये करते हैं कि शरीरमें एक प्रकारकी संवेदनाकी चाह होती है। यही ‘तलब’ या आवश्यकता कहलाती है।
यह तलब नशेके प्रभावसे शरीरकी कोशिकाओंमें पैदा हुए द्रव्य रसायनसे होती है, जो संवेदनाके रूपमें शरीरपर प्रकट होती है। यदि ‘तलब’ को साक्षी-भावसे देखें और कोई प्रतिक्रिया न करें तो नशेकी आदत ही छूट जाती है। ‘विपश्यना’ का प्रयोग पश्चिमी आस्ट्रेलियामें क्रेयन हाउसमें नशेसे छुटकारेके लिये बड़ी सफलतापूर्वक किया जा रहा है। इसके सारे सलाहकार वे भूतपूर्व नशेकी आदतवाले हैं जो विपश्यनाद्वारा नशेकी आदत छोड़ चुके हैं और अब ये नशा करनेवालोंके सम्मुख स्वयं आदर्श प्रस्तुत करते हुए उनकी आदत छुड़ानेमें उनकी मदद करते हैं।
‘विपश्यना’ द्वारा मन निर्मल और शान्त होता है तो मनमें सकारात्मक प्रतिक्रिया ही जागती है और ये प्रवृत्तियाँ असाध्य रोगोंके प्रति साक्षी-भाव जगाती हैं, जिससे रोगोंसे होनेवाली पीड़ा कम होती है। रोगोंको बर्दाश्त करनेकी क्षमता बढ़ती है और चेहरेपर शान्ति एवं मुसकुराहट ही रहती है। रोगोंपर विजय तो इस साधनाका ब्याज ही है, असल तो भव-चक्रसे मुक्ति है। हम जिस किसी भी मानसिकताले इसकी ओर बढ़े, लाभ-ही-लाभ है।

विपश्यना - पद्धति
ध्यान चेतनाकी वह अवस्था है, जिसमें विचारोंका सामञ्जस्य स्थापित होकर समस्त अनुभूतियाँ एक ही अनुभूतिमें विलीन हो जाती हैं। ध्यानकी चरमावस्थामें सभी भेद समाप्त हो जाते हैं। संकुचित सीमित आत्मा परमात्मामें कुछ समयके लिये विलीन हो जाता है। ध्यानकी जितनी आवश्यकता आध्यात्मिक जीवनमें है उतनी ही लौकिक जीवनमें भी। शक्तिका प्रयोग अच्छी या बुरी किसी भी दिशामें किया जा सकता है। इसीलिये ध्यानको अध्यात्मके साथ जोड़ना अधिक सार्थक है।
यह मन विचारोंके विशद जालमें अनवरत उलझा रहता है। यहाँतक कि सोते समय स्वप्नमें भी मन विचारोंके जंजालमें भटकता रहता है। मनकी शक्ति निरर्थक विचारोंसे क्षीण होती है। अच्छे विचारोंसे मनकी शक्ति बढ़ती है तथा सुख और शान्तिको अनुभूति बढ़ती है। आशा, निराशा, उत्तेजना, हर्ष-शोक, मोह, लोभ, राग-द्वेषके विचार सदैव चलते रहते हैं। मनकी ये सब वृत्तियाँ क्लेशकारक हैं। मनकी इन क्लेशकारक वृत्तियोंको ध्यानके द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है।
ध्यानके अभ्याससे हम अपनी संकुचित परिधियोंसे ऊपर उठ सकते हैं, ध्यानके अभ्याससे मनकी दुर्बलता दूर हो जाती है। परमात्मशक्तिका ध्यान शक्तिके अनन्त स्रोतकी ओर तो अग्रसर करता ही है, प्रबल मानसिक एकाग्रता भी प्राप्त होती है जिससे अनेक कठिन कार्य सम्पन्न किये जा सकते हैं। मनके निरर्थक क्रियाकलापोंको नियन्त्रित करके नष्ट कर देना चाहिये। तामसिक, राजसिक वृत्तियोंका नियमन हो जानेपर सात्त्विक वृत्तियाँ दृढ़ होंगी। सभी व्यक्तियोंका मानसिक स्तर एक-सा नहीं होता। मानसिक स्तर तथा साधनामें लगनके अनुसार सफलता प्राप्त होती है।
ध्यानकी विविध पद्धतियोंमेंसे एक विपश्यना पद्धति भी है। इसका मुख्य भाव है- सतत जागरूक रहकर मनकी गतिविधियोंका अवलोकन करना। अप्रमादसे अभ्यास करते रहनेपर धीरे-धीरे साधकको अन्तर्दृष्टि खुल जाती है। अपार शान्ति प्राप्त होती है। यह सद्यः फलदायक है। इसका अभ्यास करके निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। मनकी शुद्धिके लिये, दुःखों- कष्टोंसे छुटकारा पानेके लिये, मनकी चञ्चलताका नियमन करके मोक्षप्राप्तिकी अनूठी पद्धति है- विपश्यना भावनाका सतत अभ्यास|
ध्यान की विधि
श्वास लेते समय उदरके उठने तथा गिरनेके रूपमें गति होती है। प्रारम्भमें इन गतियोंपर ध्यान देनेका अभ्यास करना चाहिये। अपना ध्यान श्वास-प्रश्वासपर ले जाय। श्वास लेनेसे पेट ऊपरकी ओर उठता है और छोड़ते समय नीचे बैठता है। यदि आरम्भमें उठने और गिरनेकी प्रक्रियाका ठीक-ठीक यथावत् आभास न मिल सके तो पेटपर एक हाथ या दोनों हाथ रखनेसे यह क्रिया स्पष्ट हो जायगी कि श्वास लेनेसे पेट उठता है और श्वास छोड़ देनेसे पेट गिरता है।
अब पेटके उठने और गिरनेपर ध्यानको केन्द्रित करे। साधकके लिये ध्यानमें स्मृति, समाधि और ज्ञानको उद्बद्ध करनेके लिये यह अत्यन्त सरल और परम सहायक क्रिया है। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जायगा, श्वास-प्रश्वासके आने-जाने अथवा पेटके उठने-गिरनेका अभ्यास सहज हो जायगा।
विपश्यना (vipassana meditation) का अभ्यास जैसे-जैसे बढ़ता जायगा वैसे-वैसे मनके प्रत्येक भावोंको आप ठीक-ठीक पकड़ सकेंगे। आरम्भमें जबकि स्मृति और समाधि अभी अपरिपक्त है, मनके प्रत्येक भाव तत्काल-ही-तत्काल पकड़ पाना कठिन प्रतीत होगा। आरम्भमें तो समझमें नहीं आयेगा कि इन्द्रियद्वारोंपर सजग और सावधान रहकर, अप्रमत्त रहकर भावोंको कैसे पकड़ा जाय, परंतु श्रास-प्रश्वासके आने-जानेकी क्रिया तो स्वयमेव निरन्तर चल ही रही है, उसे खोजनेके लिये कहीं बाहर भटकना नहीं है।
अतएव सुस्थिर चित्तसे श्वासके आने जाने या पेटके उठने-गिरनेकी प्रक्रियापर ध्यान रखे और खूब गहराईसे- ध्यानसे देखता रहे। हाँ, आने-जाने या उठने-गिरनेपर ध्यान तो रहे, परंतु इन शब्दोंको मुखसे उच्च्चारण करनेकी आवश्यकता नहीं है। श्वास प्रश्वासको या पेटके उठने और गिरनेकी क्रियाको अधिक जाग्रत् या बलवती बनानेके लिये जोर-जोरसे श्वास लेनेकी जरा भी आवश्यकता नहीं है। जोर-जोरसे जल्दी-जल्दी श्वास लेनेपर तुरन्त थकावट आ जायगी। इसलिये आवश्यक है कि साधक सहजरूपमें ही श्वास-प्रश्वासकी छन्दमय गति या पेटके उठने और गिरनेपर ध्यान रखे।
इस प्रकार जब श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर अपना ध्यान जमाये हुए हैं, यह सर्वथा स्वाभाविक ही है कि मन सङ्कल्प, संस्कार, इच्छाएँ, विचार, कल्पनाओंकी भीड़ लगा दे। इन मानसिक क्रियाओंकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वे जैसे ही आयें तुरन्त उसी क्षण उन्हें अवलोकित कर लेना चाहिये, मन-ही-मन उन्हें देख लेना चाहिये। बस, देखनेमात्रसे वे ढह या गल जायँगी, बशर्ते कि उनमें उलझे नहीं। सतत जागरूकता और सावधानी ही इस साधनाका प्राण है। मनपर ज्यों ही ध्यान दिया जाता है, प्रायः यह लुप्त हो जाता है।
यदि आप भावनामें बैठे हुए हैं और श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान लगाये हुए हैं, उसी समय कोई ‘कल्पना’ आयी, तत्काल मन-ही-मन ‘कल्पना आयी, कल्पना आयी’ देखें, कोई ‘विचार’ आया तो मन-ही-मन ‘विचार आया, विचार आया’ ध्यान करें, यदि ‘चिन्तन’ आया तो मन-ही-मन ध्यान करें, ‘चिन्तन आया, चिन्तन आया’, कोई इच्छा जगी तो मन-ही-मन ध्यान करें, ‘इच्छा जगी, इच्छा जगी’, किसी प्रश्नकी गुत्थी समझमें आते ही ‘समझमें आयी, समझमें आयी’, मन-ही-मन अवलोकन करें, उनमें उलझें नहीं। मैं विचार कर रहा हूँ, मैं कल्पना कर रहा हूँ, मैं इच्छा कर रहा हूँ- ऐसा नहीं। उसमें अपने ‘मैं’ को मत सानिये।
मेरी कल्पना, मेरा विचार, मेरो इच्छा, मेरी समझ ऐसा भी नहीं। ‘मैं’ और ‘मेरा’ इस प्रक्रियामें उलझें नहीं, फँसे नहीं। तटस्थ होकर आनेवाले विचार, कल्पना, इच्छा, सङ्कल्पको देखते रहें और मन- ही-मन उनके आनेका ध्यान करते रहें। ध्यान करते ही वे या तो ढहकर या गलकर स्वयमेव गायब हो जायेंगे और आप अपने साधन पथपर निश्चिन्त निरापद बेखटके बढ़ते जायेंगे। चिन्तनमें धैर्यकी बहुत आवश्यकता पड़ती है। यदि कोई धैर्यपूर्वक अनुभूतियोंको सहन नहीं कर सकता और बार-बार अपनी मुद्राको बदलता रहता है तो समाधि-प्राप्तिकी आशा नहीं की जा सकती।
चूँकि एक ही आसनसे देरतक ध्यानमें बैठना होता है, यह सम्भव है कि शरीरमें थकानका या अङ्गोंमें ‘जकड़नका अनुभव हो। ऐसी अवस्थामें जहाँ थकानका बोध हो रहा है वहाँ ध्यान ले जाकर ‘थका, थका’ या जकड़न, जकड़न’ का ध्यान करे-स्वाभाविक रूपमें न तो बहुत धीरे-धीरे, न झटकेमें। ऐसा करते ही थकान या जकड़नका भाव स्वयं ही धीरे-धीरे गायब हो जायगा।
ऐसा भी हो सकता है कि वह थकान या जकड़न बढ़ जाय। ऐसी अवस्थामें साधक चाहने लगता है कि आसन बदल दिया जाय और तब उसे मन-ही-मन अवलोकन करना चाहिये ‘चाह रहा हूँ, चाह रहा हैं’ और तब अपना आसन धीरे-धीरे साथ ही प्रत्येक स्थितिका क्रमशः अवलोकन करते हुए शनैः शनैः बदलना चाहिये। धीरे-धीरे प्रत्येक स्थितिकी बारीक से बारीक बातका अवलोकन करना चाहिये।
जब अपना आसन बदलकर सुस्थिर बैठना हो तो पुनः श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान जमा दे। यदि शरीरमें कहीं गर्मीका बोध हो रहा हो तो उस स्थानपर ‘गरम, गरम’ का ध्यान करते ही गर्मी समाप्त हो जायगी। यदि शरीरके किसी भागमें खुजली उठ रही है तो उस स्थानविशेषपर मनको टिकाकर ‘खुजला रहा हूँ चुनता रहा है’ का ध्यान करे, न तो चाहुत धीरः धारे, न बहुत जल्दी-जल्दी। यदि वैसा करते खुजलों अपने-आप मिट जाय तो पुनः श्रासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर अपना ध्यान टिका दें।
यदि ऐसा अनुभव हो कि खुजली जा नहीं रही है बल्कि बढ़ती ही जा रही है और असह्य हो रही है तथा यह उसे खुजलाना ही चाहता है तो उसे अपनी इस इच्छाका अवलोकन करे- ‘चाहता है, चाहता हूँ’ और बहुत धीरे-धीरे अपना हाथ उठाकर उस स्थानको खुजला ले। परंतु प्रत्येक स्थितिका सावधानीके साथ ध्यान करते हुए हो हाथ हटा लें। फिर श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान केन्द्रित कर लें।
भावनाके समय यदि शरीरके किसी भागमें दर्दका अनुभव हो रहा हो तो मनको उस स्थानविशेषमें टिकाकर ‘दर्द हो रहा है, दर्द हो रहा है, ‘पीडा हो रही है, पीडा हो रही है’, ‘कष्ट हो रहा है, कष्ट हो रहा है’, का अवलोकन करे। इसी प्रकार यदि धकानका अनुभव हो रहा है तो ‘थका, थका’ सिरमें चक्कर आ रहा है तो ‘चक्कर आ रहा है, चक्कर आ रहा है।’ ऐसा करते ही यह प्रतीत होगा कि दर्द, पीडा या थकान अथवा सिरका चक्कर सब गायब हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि दर्द बढ़ जाय तो धैर्यके साथ उसे अवलोकन करते रहें, घबराये नहीं। यदि थोड़ी देर अपनी भावनाको बनाये रहें तो दर्द अवश्य मिट जायगा।
परंतु फिर भी यदि दर्द नहीं जा रहा है और असह्य हो रहा है तो वहाँसे ध्यान हटाकर श्वास प्रश्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर जमा दे। कभी-कभी समाधिमें थोड़ी प्रगति होनेके बाद यह अनुभव होता है कि असह्य पीडा होने लगी है या ऐसा लगता है जैसे दम घुट रहा हो या कोई छूरी चुभो रहा है या सूई चुभो रहा है या शरीरपर छोटे छोटे कई कीड़े घूम रहे हैं। कभी-कभी जोरकी खुजलाहट होगी, घोर सर्दी या भयंकर गर्मीका बोध होगा। जैसे ही अपना ध्यान बंद कर दें, ये अनुभव भी अपने-आप ही समाप्त हो जायेंगे। परंतु फिर जैसे ही ध्यान करनेपर ऐसे बोध फिर आ जुटेंगे। सच तो
यह है कि ये कह-चोध न तो कुछ महत्वपूर्ण होते हैं और न कोई बीमारी ही है। ये तो शरीरमें पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं। चूंकि हम कई और भी महत्त्वपूर्ण कार्योंमें संलग्र होते हैं, ये छोटे-छोटे दोष छिपे पड़े रहते हैं। ध्यानके समय ये जाग उठते हैं। क्योकि मनकी शक्ति प्रबल हो जाती है। यदि अपने ध्यानमें संलग्न रहें तो साधक निश्चय ही इन अप्रिय बोधोंपर विजयी होगा और तब फिर ये अपना प्रभाव नहीं डाल पायेंगे।
ध्यान जैसे-जैसे प्रगाढ़ होता जायगा तो कभी- कभी गुदगुदीका अनुभव होगा या रोढ़के भीतरसे अथवा सारे शरीरमें एक शीतल धाराके प्रवाहका अनुभव करेगा। यह और कुछ नहीं प्रप्रीतिका प्रवाह है, जो ध्यानको सफल प्रगतिमें होता ही है। ध्यानमें बैठने पर हल्की आवाजसे भी चमत्कृत हो जायगा। इसका कारण यह है कि अब स्पर्शानुभूतिका विशेष अनुभव होगा। यदि ध्यानमें शरीरकी स्थिति बदलनेको इच्छा हो तो बदलनेकी प्रत्येक अवस्थाको मन-ही- मन देखते जायें और धीरे-धीरे सारी प्रक्रियाके एक-एक गतिविधिका अवलोकन करता हुआ शरीरके अङ्गोंको सुविधानुसार यथारुचि बदल ले।
यह बहुत ही धीरे-धीरे होना चाहिये ताकि ध्यानमें उस कारण किसी प्रकारका विघ्न या विक्षेप न आये। यदि नींद आने लगे तो ‘नींद आ रही है, नींद आ रही है। यदि आँखें झपकने लगे तो ‘झेंपक रही हैं, झपक रही है’, ध्यान करे। अपने ध्यानमें एकाग्रता सिद्ध कर लेनेपर महसूस होगा कि नींद या आँखें झपकनेकी स्थितिका ध्यान करते ही नींद या झपकी अपने-आप समाप्त हो जायगी और तुरंत एक विचित्र ताजगीका अनुभव होगा। फिर तुरंत श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर अपना ध्यान केन्द्रित कर लें। यदि नींद या झंपकीपर विजय नहीं प्राप्त हो पाये तो भी उसे अपने ध्यानको चालू रखना चाहिये, जबतक कि नींद न आ जाय।
नींदमें किसी प्रकारका चिन्तन या ध्यान सम्भव नहीं है। जागते ही जागनेके प्रथम क्षणसे स्मृतिका अभ्यास शुरू कर दे- ‘ जाग रहा हु, जाग रहा हु’| आरंभ मे स्मृति का अभ्यास करना कठिन होगा- जिस क्षण उसे याद आ जाय तभी से शुरू करे| उदाहरण के लिए जिस क्षण चिंतन्य का ध्यान आए, ‘चिन्तन कर रहा हूँ, चिन्तन कर रहा हूँ। और वह श्वास आने-जाने या पेटके उठने गिरनेपर ध्यान टिका दे। आरम्भमें कई बातें छूट जायेंगी, परंतु इससे विचलित नहीं होना चाहिये। अपने उद्देश्यकी सिद्धिमें, अभ्यासमें पूर्णतः तत्पर रहना चाहिये। जैसे-जैसे अभ्यास बढ़ता जायगा, छूट कम होती जायगी और आगे बढ़नेपर अधिक विस्तारमें ध्यान करते रहें।
एक व्यक्ति ज्यों ही कोई ध्वनि सुनता है तो मुड़कर उस दिशामें देखता है जहाँसे ध्वनि आ रही है। यह धीर व्यक्तिके समान व्यवहार नहीं है। एक बहरा व्यक्ति शान्त ढंगसे व्यवहार करता है। वह किसी बात-चीतपर ध्यान नहीं देता; क्योंकि वह उन्हें सुनता नहीं। इसी तरह किसी भी अनावश्यक बात-चीतपर ध्यान नहीं देना चाहिये, न तो किसी बात-चीतको जानबूझकर मन लगाकर सुनना चाहिये। यह ध्यान रखना चाहिये कि एकाग्रचित्त होकर चिन्तन करना हो एकमात्र कर्तव्य है। देखी-सुनी जानेवाली दूसरी वस्तुओंसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। उनपर ध्यान नहीं देना चाहिये। जब कोई दृश्य दीख जाय तो उसे तुच्छ समझकर टाल जाना चाहिये।
ध्यान मे प्रगति
एक दिन और एक रात इस अभ्यासको कर लेनेके अनन्तर यह अनुभव होगा कि ध्यान विशेष प्रगाढ़ और सघन होता जा रहा है तथा श्वासके आने- जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान आसानीसे केन्द्रित रह सकता है। यदि बैठनेको स्थितिमें है तो पेटके उठने-गिरने और अपने बैठनेका भी मन-ही-मन ध्यान करते रहें-उठा, गिरा, बैठा, उठा, गिरा, बैठा। यदि वह लेटे हुए है तो मन-ही-मन ध्यान करे-उठा, गिरा, सोया, उता, गिरा, सोया। यदि वह इन तीन वित्दुओंपर एक साथ मनको एकाग्र करनेमें कठिनाईका सुनुभव करे तो श्रासके आने-जाने या पेटके उठने गिरने पर ही ध्यान टिकायें |
जब अपने शरीर के किसी क्रिया पर ध्यान लगाए हुए हैं तो सुनने या देखनेकी क्रियामें संलग्न नहीं होना , है। श्वासके आने-जाने या पेटके उठने गिरनेपर जव फिर ध्यान है और उसी समय कहीं कोई दृश्य देखनेको ओर दृष्टि चली गयी तो तुरंत ध्यान करना चाहिये ‘देख रहा हूँ, देख रहा हूँ’ और फिर उसे श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान टिका देना चाहिये। यदि कोई व्यक्ति दृष्टिपथमें आ जाय तो ‘देख रहा हूँ, देख रहा हूँ’, का दो-तीन बार ध्यान कर ले, फिर श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान टिका ले।
यदि कोई ध्वनि या शब्द सुनायों दे तो ‘सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ’, का दो-तीन बार ध्यान कर ले और तब श्वासके आने-जाने या पेटके उठने- गिरनेपर ध्यान टिका ले। यदि जोरकी ध्वनि जैसे- कुत्तेके भौंकने, जोर-जोरसे बोलने, जोर-जोरसे गानेको ध्वनि सुनता है तो ‘सुन रहा हूँ, सुन रहा हूँ’, दो या तीन बार ध्यान कर ले और तब अपने ध्यानको श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर जमा ले। यदि उन शब्दोंको सुननेमें लग जायेंगे तो सम्भव है कि उन-उन वस्तुओंमें उलझ जायें और तब फिर श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान न जम सके।
इसी प्रकार मनको क्षुब्ध करनेवाले विकार जन्मते और बढ़ते हैं। यदि ऐसे विचार आवें तो तुरंत दो-तीन बार ध्यान करे- विचार कर रहा हूँ, विचार कर रहा हूँ और फिर श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान टिकाये।
इस प्रशिक्षणमें कुछ समय लगा चुकनेपर मनमें ऐसा भाव उठ सकता है कि यथेष्ट उन्नति नहीं हो रही है और सुस्तीका भाव आ सकता है। ऐसे समय ‘सुस्ती, सुस्ती’ की भावना करे। इतना ही नहीं. स्मृति, समाधि और ज्ञानमें पर्याप्त उन्नति उपलब्ध करनेके पूर्व मनमें इस ध्यानप्रक्रियाकी सचाईके बारेमें भी संदेह उठ सकता है। ऐसी स्थितिमें मन- ही-मन भावना करें-‘ संदेहमय, संदेहमय’, कभी- कभी उत्तम परिणामको आशा-अपेक्षा भी होगी। ऐसे समय ‘आशा कर रहा है, आशा कर रहा हूँ’ की भावना करें।
कभी-कभी साधनाको सफलतापर हवं और प्रसन्नताका अनुभव होगा, ऐसे अवसरपर ‘प्रसन्न, प्रसन्न’ की भावना करें। अपने मनकी प्रत्येक अवस्थाको सावधानीके साथ देखते रहें और एक एकका ध्यान करते रहें। फिर श्वासके आने-जाने या पेटके उठने-गिरनेपर ध्यान टिका लें। प्रातः जागनेसे रातके सोनेके समयतक साधनाका समय है। इस प्रकार जबतक जागता रहे पूर्णतः सावधान और प्रमादरहित रहे।
इसमें किसी प्रकारको शिथिलता न आने पाये। साधनाके परिपक्क हो जानेपर स्वयं अनुभव होगा कि उसे अब नोंदकी जरूरत नहीं है और रात दिन लगातार साधना चलती रहेगी, अविच्छिन्न और अखण्डभावसे।इस प्रकार रातों-दिन साधनामें लगा रहे तो ध्यान इतना जाग्रत्, प्रखर और प्रगाढ़ हो जायगा कि विपश्यना ज्ञानकी परम और चरम अवस्थाकी भी उपलब्धि हो जायगी।