Aarogya Anka

स्वस्थ जीवन आरोग्य अंक /आयुर्वेद के साथ

आयुर्वेद दुनिया का प्राचीनतम चिकित्सा प्रणाली है Ιऐसा माना जाता है की बाद मे विकसित हुई अन्य चिकित्सा पद्धतियों मे इसी से प्रेरणा ली गई है Ιकिसी भी बीमारी को जड़ से खत्म करने के खासियत के कारण आज अधिकांश लोग आयुर्वेद के तरफ जा रहे हैΙइस लेख मे हम आयुर्वेद चिकित्सा से जुड़ी हर एक रोग और उसके इलाज के बारे मे बताएंगे Ιआयुर्वेद चिकित्सा के साथ सभी प्रकार के जड़ी -बूटी के बारे मे तथा आयुर्वेद के 8 प्रकारों से हर तरह के रोगों के इलाज के बारे मे बताया गया हैΙ सभी पोस्टों को पढे ओर जानकारी अवश्य ले ताकि आप भी अपना जीवन आरोग्य के साथ healthy बना सके| thanks . 

अर्क प्रकरण: Ark processing in hindi:

किसी भी जड़ी बूंटी/बनौषधि एवं फल-सब्जी आदि के अर्क में ओषध सार (तत्व) विद्यमान रहता है तथा रस अर्क-लघु (हल्का) और शीघ्र पाची गुण के कारण पेट में पहुँचकर शीघ्र ही अपना प्रभाव भी प्रकट करते है। इसके अतिरिक्त अर्को के द्रव (पानी सदृश पतले) रूप में होने के कारण मुख द्वारा सेवन करने में भी अत्यन्त सुविधा युक्त रहते हैं।

यही कारण है कि वर्तमान स्वरूप में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में अर्को का प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। आज शायद ही कोई सुयोग्य आयुर्वेदज्ञ वैद्य ऐसा नहीं होगा, जो अकों का प्रयोग न करता होगा। यही कारण है कि अर्को के बढ़ते हुए प्रचार को दृष्टिगत रखते हुए यहाँ यह आवश्यक हो जाता है कि आयुर्वेदिक ओषधि निर्माण ग्रन्थ (फार्माकोपिया PHARMACO- POEIA) के रूप में प्रस्तुत ग्रन्थ में स्वतन्त्र रूप में “अर्क प्रकरण” दिया जाये, ताकि पाठकों, आयुर्वेद जिज्ञासुओं और वैद्यगणों को मुख्य मुख्य अर्को के योगों और उनके गुण धर्मों की पर्याप्त जानकारी सुलभ हो सकें।

अर्क निकालने की समान्य विधियो -

जिस द्रव्य का भी अर्क निकालना हो वह यदि मृदु (मुलायम) रूप में हो तो उसको साबुत ही (जैसे-अजवायन, सौंफ, जीरा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी मकोय, पटोल पत्र, भृंगराज, गुलबन्फ्श व पटोल पत्र आदि) तथा कठोर (कठिन) द्रव्य होने की स्थिति में (जैसे खदिरकाष्ठ, सफेद चन्दन, रक्त (लाल) चन्दन, विजयसार, नीम वृक्ष की छाल, उशवा, गिलोय, चोपचीनी व अनन्त मूल आदि) के छोटे-छोटे टुकड़े करके इमामदस्ता (लोहे के खल बट्टा) में कूटकर यवकूटकर (दरदरा चूर्ण करके) सायंकाल के समय किसी कलईदार साफ पात्र में अथवा 

मिट्टी के बर्तन में 8 गुणा साफ पानी में भिगोकर व ढक्कर रख दे और दूसरे दिन प्रातः समय ही साफ-स्वच्छ किये हुए नाड़िका यन्त्र में डालकर यन्त्र के ऊपरी भाग को कपड़ मिट्टो लगाकर (अथवा प्लास्टर आफ पेरिस आदि से) सन्धिरोध कर दें।

 (पुराने समय वैद्यगण उड़द के आटा को जल में सानकर, उससे भी सन्धिरोध किया करते थे।) तदुपरान्त यन्त्र को चूल्हें अथवा आग की भट्टी पर रखकर मन्दी आग जलायें। (आग न अधिक तेज हो तथा न अधिक मन्दी।) आग धीमी/मन्दी रहने पर ओषधियुक्त जल में वाष्प (भाप) उत्पन्न नहीं होती है, जिसके कारण अर्क नहीं बन पाता है तथा आग अधिक तेज होने पर उत्ताप अधिक बढ़ कर ओषधि “खरपाक” हो जाती है|

 जिससे ओषधि के रंग में बैवण्य (मटमैलापन या गन्दलापन/कालापन) आ जाता है तथा गन्ध भी उखरान्द युक्त हो जाती है। इसके अतिरित अर्क के गुण धर्म भी नष्ट हो जाते हैं। यही कारण है कि तेज आग से निकाले गये अर्क सेवन करने के योग्य नहीं होते हैं। मन्दी आग पर पकाये गये अर्क साफ-स्वच्छ, श्वेत वर्ण के तथा पार दर्शक तथा द्रव्य की यथार्थ गन्ध युक्त होते है। अर्क निकालते समय विशेष स्मरणीय बात यह है कि पात्र के ऊपरी भाग के जलाधार में डाले हुए जल में जब-जब वाष्प उठने लगे तब जल निकालने की नली का कार्क खोलकर, गर्म पानी मिलाकर पुनः कार्क लगाकर, ठण्डा पानी भर देना चाहिए। (ऐसा करने से अर्क अच्छा और साफ निकलता है।)

यदि आधुनिक (यानी माडर्न टाइप MODERNTYPE) का यन्त्र हो तो उसमें बार-बार पानी बदलने की आवश्यकता नहीं रहती है। क्योंकि उसकी अर्क वाष्प निकलने की नली जल भरे ड्राम में फिट कर अर्क बनाने (वाष्प ठण्डा होने) के पात्र में फिट रहती है और इस जल भरे ड्राम में भी नीचे के भाग में, उस ड्राम के ऊपरी भाग के ऊंचाई पर स्थित ठण्डे जल के निचले भाग से फिट होकर आने वाला ठण्डा पानी आने की नली (रबड़ अथवा पाईप नली) फिट रहती है, जिससे बराबर ठण्डा जल ड्राम में आता रहता है।

 जिस आकार/साइज की मोटी यह ठण्डा जल आने आने की नली फिट रहती है उसी साइज की नली ड्राम के ऊपर भाग में गर्म पानी निकालने को फिट रहती है, जिससे जितने परिमाण में ठण्डा जल ड्राम में आता है, उतने परिमाण में गर्म जल ड्राम से बाहर निकाल कर थोड़ी दूर बने हुए हौज (अथवा रखे हुए दूसरे ड्राम) में जाकर ठण्डा होता रहता है। इस प्रकार गर्म जल अपने आप (स्वतः) ही निकलता रहता है तथा उसके स्थान पर ठण्डा जल स्वतः ही आता रहता है।

 कोलकाता, मुम्बई आदि बड़े-बड़े नगरों/शहरों में अर्क निकालने की प्राचीन विधि वाले तथा आधुनिक विधि से निर्मित (दोनों ही) प्रकार के नाड़िका यन्त्र उपलब्ध है। सुविधा की दृष्टि से देखा जाये तो आधुनिक विधि से निर्मित मार्डन टाइप यन्त्र विशेष उपयोगी है। आजकल तो इनसे भी अधिक सुविधायुक्त स्टीम अथवा विद्युत ताप से कार्य करने वाले नाड़िका यन्त्रों (DIS- TILLATION PLANTS) का भी वैज्ञानिकों ने अविष्कार कर लिया है, जिनका उपयोग विदेशी ओषधियाँ बनाने वाली फार्मेसियाँ कर रही है। आज के आयुर्वेदिक ओषध निर्माताओं को भी इनका उपयोग कर लाभान्वित होना चाहिए।

अर्क निकालने के लिए द्रव्य को लेने का सही तरीका-

* जितने पानी में भिगोया जाये उसका 2èk3 भाग अर्क निकल जाने पर अर्क निकालना बन्द कर देना चाहिए तथा नाड़िका यन्त्र के नीचे की आग को बाहर निकालकर बुझा देना चाहिए, क्योंकि इससे यदि अर्क अधिक निकल जायेगा जो फिर द्रव्यों का खरपाक होकर, पूर्वोक्त उल्लखित तेज आग पर निकाले गये अर्क के समान अर्क गुणहीन होकर निकलेगा और वह अर्क पहले निकले हुए अर्क में गिरकर उसको भी खराब कर देगा। अतः ऐसा कदापि न होने पाये, इसका विशेष ध्यान रखा जाना अत्यावश्यक है।

 इसके अतिरिक्त जिस पात्र/बर्तन में निकाला हुआ अर्क संचित हो वह पात्र भी कलई दार अथवा एनामेल युक्त या चीनी मिट्टी का साफ-स्वच्छ होना चाहिए और इस पात्र पर ढक्कन अवश्य लगा रहना चाहिए। ढक्कन में अर्क निकालकर आने की नली फिट करने का सूराख (छेद) रखना चाहिए। अर्क निकाल चुकने के उपरान्त पात्र को अलग हटाकर छेट में कार्क फिट करके ठण्डा होने को रख देना चाहिए और ठण्डा हो जाने पर पात्र को ढक्कन हटाकर अर्क नापकर प्रति गैलन अर्क में आधा औंस के हिसाब से उत्तम क्वालिटी की खूब सफेद खड़िया का चूर्ण (चाक पाउडर) मिलाकर 2-3 घण्टे तक पड़ा रहने देना चाहिए। 

तदुपरान्त किसी साफ-स्वच्छ 4 तह के मोटे कपड़े अथवा फिल्टर बैग से अर्क को छान लेना चाहिए। ऐसा करने से अर्क नितर कर एकदम साफ-स्वच्छ वर्ण का (पारदर्शक) हो जाता है। अब इस अर्क को साफ धोकर सुखायी हुई बोतलों में भरकर मजबूत कार्क लगाकर, बोतल के मुँह से बाहर रहे कार्क की छुरी/चाकू से काटकर उस पर मोम या चमड़ा आदि से सील लगा देनी चाहिए। (ताकि अर्क की बोतलों में बाहरी हवा (एअर) प्रवेश करके उसको बिगाड़ न सके।) 

आजकल चूड़ीदार मुँह की बोतलें भी बनती हैं। इन बोतलों में अर्क भरकर इनको फिट करने का फिल्पर प्रूफ (एल्युमिनियम का बना हुआ) कार्क लगाकर, कार्क कसने की सीलिंग मशीन से कस देना चाहिए। इनके लगने पर बोतलों में बाहरी हवा के प्रवेश करने का डर नहीं रहता है। (यद्यपि बिल्कुल वायु निरोधक/एअर टाइट तो इससे भी नहीं हो पाता है, फिर भी बहुत कुछ अंशों में वायु का प्रवेश होना रूक जाता है।) तदुपरान्त बोतलों पर जिस द्रव्य का अर्क हो, उसके (अर्क के) नामों का लेबिल लगाकर ठण्डे स्थान में रख देना चाहिए। इस प्रकार विधिपूर्वक अर्क रखने से जल्द खराब नहीं होते है।

1. अजवायन अर्क-

अजवायन अर्क

अजवायन (साफ-स्वच्छ लें) 2½ सेर को 20 सेर पानी के साथ सायंकाल के समय भिगो दें और प्रातः समय नाड़िका यन्त्र (भवका) में डालकर मध्य (न हल्की और न तेज) अग्नि की आंच देकर 10 बोतल अर्क निकालकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

1 तोला से 5 तोला तक आवश्यकतानुसार दिन में 2-3 बार समान भाग जल मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

अजवायन अर्क के सेवन करने से मन्दाग्नि, अजीर्ण, गुल्म, आमदोष, अरूचि, उदरशूल तथा वायु व कफ के विकार दूर होते हैं।

2. उशवा अर्क-

देशी उशवा (अनन्तमूल) जौकुट किया हुआ 2½ सेर लेकर सायंकाल के समय 20 सेर उष्ण पानी में भिगो दें और प्रातः समय नाड़िका यन्त्र (भवका) में डालकर 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 तोला से 5 तोला तक समान भाग पानी मिलाकर दिन में 2 बार प्रातः सायं सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

उशवा अर्क को कुछ समय तक निरन्तर सेवन करने से रक्तदोष (खून की खराबी) व त्वचा विकृति के रोग, खाज-खुजली, फोड़ा-फुन्सी आदि दूर हो जाते हैं। जीर्ण उपदेश व सूजाक विष के कारण शरीर पर लाल-लाल चकत्ते पड़ना, चर्म (SKIN) पर काले काले दाग पड़ना आदि विकारों में भी यह उत्तम गुणकारी/लाभकारी है। रक्त को शुद्ध करने हेतु यह “सासी परीला” के सदृश उत्तम लाभ कर/प्रभाव कर है।

3. गोरखमुंडी अर्क-

गोरखमुण्डी फूल 2% सेर लेकर शाम के समय 20 सेर पानी में भिगो दें और सुबह के समय भवका में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क परिश्रुत कर लें। 

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2½ तोला से 5 तोला तक 24 घण्टे (1 दिन रात) में 4 बार यूं ही अकेले अथवा समान भाग जल मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

गोरखमुण्डी अर्क के सेवन करने से रक्त आदि धातुओं की वृद्धि होकर खाज-खुजली, फोड़ा-फुन्सी, दाद, चकत्ते निकलना, कुष्ट व विसर्प आदि विकार आराम होते है। यह अर्क त्वचा व लसीका की विकृति को नष्ट करके वर्ण को सुधारता है। यदि शरीर व मुख मण्डल पर काले काले दाग-झाइयाँ आदि हों तो कुछ दिनों तक इसके निरन्तर से वह सब कष्ट दूर होकर शरीर का वर्ण स्वच्छ तथा मुख मण्डल कान्ति युक्त हो जाता है। जीर्ण पूयमेह व जीर्ण उपदंश जन्म विकारों में भी इस अर्क का कुछ दिनों तक निरन्तर सेवन करने से धातुओं में प्रविष्ट हुआ विष नष्ट होकर रोग विकारों का निर्मूलन हो जाता है।

4. गिलोय अर्क-

हरी ताजा गिलोय 2½ सेर के टुकड़े-टुकड़े करके इमामदस्ता अथवा लकड़ी की ओखली में कूट कर शाम के समय 20 सेर पानी में भिगो दें और सुबह के समय भवके में डालकर 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 तोला से 5 तोला तक सुबह-शाम दिन में 2 बार यूं ही अकेले अथवा समान भाग जल मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

गिलोय अर्क के सेवन करने से आमवात, वातरक्त, प्रमेह. रक्तपित्त, जीर्ण ज्वर, पित्तज्वर, रक्त की गर्मी के विकार, मधुमेह आदि रोगों में अति उत्तम लाभ होता है।मधुमेह (डायबिटीज) से पीड़ित रोगियों को जब-जब प्यास लगे तब-तब जल में 2 तोला इस अर्क को मिलाकर सेवन कराने से कुछ ही समय में मूत्र में चीनी (Sugar) की मात्रा कम हो जाती है।

5. चंदनादि अर्क-

उत्तम सफेद चन्दन का चूर्ण (बुरादा), मौसमी गुलाब के फूल, केवड़ा वेद मुश्क (अभाव में मौल श्री के फूल) और कमल के फूल-प्रत्येक समान मात्रा में लेकर 8 गुना पानी के साथ भवके में डालकर विधिवत अर्क खींच लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क मात्रा) 2 तोला से 4 तोला तक दिन में 2 बार सुबह-शाम यूं ही अकेले अथवा गाय के दूध की लस्सी के साथ मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह अर्क शीत वीर्य होने के कारण पित्त जन्य विकारों में अत्यन्त ही लाभकारी है। मूत्र में जलन, मूत्र त्याग रुक-रुककर कष्ट के साथ आना/ होना, पेशाब के साथ रक्त गिरना अथवा नक्सीर (नाक से रक्त गिरना) का कष्ट हो तो इस अर्क में आधा तोला मिश्री मिलाकर रोगी को सेवन कराने से मूत्र त्याग बिना किसी कष्ट का साफ होने लगता है तथा रक्त का गिरना भी बन्द हो जाता है। जीर्ण प्रमेह (सूजाक/गनोरिया) रोग में कबाब चीनी का तेल 5 बूंद मिलाकर सेवन करने से भी उत्तम लाभ होता है। इसके अतिरिक्त प्रवाल, मोती, मुक्ता शक्ति तथा रत्नों की पिष्टी बनाने में भी इसका अत्यन्त श्रेष्ठ उपयोग होता है।

6. चिरायता रस/अर्क-

उत्तम क्वालिटी का नैपाली चिरायता जौकुट किया हुआ 2½ सेर लेकर शाम/ रात समय 25 सेर पानी में भिगो दें और सुबह के समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2½ तोला से लेकर 5 तोला तक दिन रात (28 घण्टे) में 4 बार सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

चिरायता अर्क के सेवन करने से जीर्ण ज्वर, विषम ज्वर, मन्दज्वर, पित्त ज्वर, पित्त दोष, रक्त विकार, पाण्डु, कामला आदि विकारों में अत्यन्त ही लाभ होता है। रस, रक्तादि धातुओं में लीन ज्वर कारक दोष को निर्मूल करके ज्वर को जड़ मूल से दूर करने की यह दिव्य प्रभाव शाली ओषधि है। कुनैन आदि तीक्ष्ण व उष्ण ओषधियों के सेवन करने से ज्वर अटर्क/बिगड़ जाता है और किसी भी ओषधि के प्रयोग से ज्वर आराम नहीं होता है। 

ऐसी स्थिति में प्रत्येक 4-4 घण्टे के अन्तराल से 2½-2½ तोला की मात्रा में चिरायता अर्क के सेवन से रोगी का ज्वर कुछ ही दिनों में पूर्ण रूपेण आराम/नष्ट या दूर हो जाता है। कुनैन के सेवन करन से कुछ रोगियों के रक्त में गर्मी बहुत बढ़ जाती है, जिससे रोगी को पसीना बहुत निकलता है तथा प्यास की अधिकता से शरीर में जलन/दाह बना रहता है कानों में सांय-सांय की आवाज होती है अथवा कानों से कम सुनाई पड़ने लगता है ऐसी अवस्था में इस अर्क का निरन्तर कुछ दिनों सेवन करने से इन कष्ट प्रद विकारों का शमन हो जाता है। इस अर्क के सेवन काल में गाय का दूध सेवन करना विशेष हितकर है।

7. त्रिफला अर्क-

त्रिफला 2% सेर को जौकुट करके शाम के समय 20 सेर जल में भिगोकर सुबह के समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2 तोला से 8 तोला तक दिन-रात (24 घण्टे) में आवश्यकतानुसार 3-4 बार सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

त्रिफला अर्क रस, रक्त आदि धातुओं को शुद्ध करने वाला, तथा बढ़ाने वाला है। प्रमेह, मधुमेह, स्वप्नदोष, मेदोवृद्धि (मोटापा), शरीर से पसीना अधिक निकलना और पसीने में दुर्गन्ध आना, पेट फूला रहना, पाण्डु रोग, कामला, वात रक्त, आमवात, खाज-खुजली, कब्ज, पामा व कुष्ठ आदि अनेकों रोगों को नष्ट करता है और त्वचा के वर्ण को निखार कर कान्तियुकत बनाता है। जीर्ण विकारों में त्रिफला अर्क का निरन्तर कम से कम 3-4 माह तक सेवन करना चाहिए।

8. दशमूल अर्क-

दशमूल 2% सेर का जौकुट किया हुआ चूर्ण लेकर शाम के समय 20 मेर पानी में भिगो दें और प्रातः समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपान – 

(वयस्कों के लिए) 1 तोला से 10 तोला तक दिन भर में 4 बार यूं ही अकेले अथवा किन्हीं उचित वातनाशक ओषधियों के साथ अनुपान रूप में सेवन कराये।

गुण व उपयोग

यह दशमूल अर्क अति उत्तम वात शामक और प्रसूत विकारों को नष्ट करने वाला है तथा शिरोरोग नाशक है और हृदय व वात नाड़ियों को बल प्रदान करने वाला है। स्नायु दौर्बल्य अथवा मानसिक अशन्ति के रोगी को निद्रा नहीं आती हो तो गाय के गर्म दूध में मिलाकर इस दशमूल अर्क को सेवन करने से स्नायुमण्डल व मन को शान्ति प्राप्त होकर उत्तम प्राकृत निद्रा आ जाती है।

 हृदय रोगों में जब वायु की प्रबलता के कारण हृदय में झटके लगते से प्रतीत होते हो अथवा मन्द-मन्द शूल सा अनुभव होता है तो ऐसी अवस्था में अर्जुन की छाल का चूर्ण । माशा या नागार्जुनाभ्ररस और मुक्ता पिष्टी के साथ इस अर्क को अनुपान के रूप में सेवन करने से बहुत ही शीघ्र ही उत्तम व श्रेष्ठ लाभ होता है। इसके अतिरिक्त शोथ रोग और गुल्म व उदर रोगों में भी इसके सेवन से खूब लाभ होता है।

9. पोदीना अर्क-

 पुदीना (सूखा) 1% सेर लेकर रात्रि के समय 20 सेर जल में भिगो दें और प्रातः समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल लें। तदुपरान्त इस अर्क में पुनः (दोबारा) 1% सेर पुदीना भिगोकर, दूसरे दिन पुनः विधिवत् अर्क निकाल लें तथा इसमें प्रति छटांक 20 बूंद के हिसाब से केम्फोरोडाइन घोलकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 30-30 मि०ली० प्रत्येक 4-4 घण्टे के अन्तराल से सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह अर्क, एक अति उत्तम छर्दिनाशक (वमन नाशक) है। जी मिचलाना, उबकाईयां आना, अफरा, अजीर्ण एवं मन्दाग्नि आदि रोग विकारों में शीघ्र ही उत्तम गुण्कारी/लाभकारी महौषधि है।

10. पित्त पापड़ा (शहतरा) अर्क-

पित्त पापड़ा (शहतरा) 1% सेर लेकर 20 सेर पानी में शाम के समय भिगो दें और प्रातः समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क खींचकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क मात्रा) 5 से 10 तोला तक अर्क दिन रात (24 घण्टे) में 3-4 बार अकेला ही अथवा शर्बत उन्नाव में मिलाकर सेवन कराये।

गुण व उपयोग-

यह अर्क रक्त प्रसादक है। यह त्वचा के वर्ण को निखारता है तथा मुख मण्डल के लिए कान्ति दायक है। रक्त दोष व चर्म विकारों के कारण उत्पन्न हुए फोड़ा-फुन्सी, खाज-खुजली आदि को नष्ट करता है। यह अर्क उत्तम पित्त शामक होने के कारण पित्त ज्वर, दाह, रक्त पित्त, प्यास की अधिकता, पसीना अधिक निकलना तथा शरीर में गर्मी का अधिक बढ़ जाना आदि विकारों में अत्यन्त ही लाभकर है।

11. पुनर्नवा अर्क-

पुनर्नवा मूल 2½ सेर को लेकर जौकुट करके 20 सेर जल में शाम के समय भिगोये और प्रातः समय भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 तोला से 8 तोला तक 24 घण्टे में 3-4 बार ½ तोला शहद मिलाकर अथवा अन्य किन्हीं उचित ओषधियों के अनुपान रूप में सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

पुनर्नवा अर्क उत्तम शोथ नाशक एवं पाण्डु, कामला, हलीमक, उदर रोग, मूत्रकृच्छ्र, प्रमेह, रक्त पित्त, वृक्क विकार, यकृतशोथ, बस्तिशोथ तथा स्त्रियों के गर्भाशय विकारों आदि में अत्यन्त ही गुणकारी है। मूत्रकृच्छ्र रोग में इस अर्क में यवक्षार 4 रत्ती मिलाकर, रक्तपित्त रोग में आंवला रस 1 तोला तथा मिश्री ½ तोला मिलाकर सेवन करने से तथा गर्भाशय शोथ में इस अर्क के साथ दशमूल अर्क समान मात्रा में मिलाकर सेवन करना अत्यन्त ही कल्याणकारी है।

12. ब्राम्ही अर्क-

ब्राह्मी की पत्तियां 2% सेर लेकर पानी से धोकर शाम के समय 25 सेर जल में भिगो दें और सुबह के समय नाड़िका यन्त्र (भवके) में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकालकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 तोला से 5 तोला तक दिन में 3-4 बार यूं ही अकेले अथवा किन्हीं उचित ओषधियों के अनुपान रूप में सेवन करे।

गुण व उपयोग-

ब्राह्मी अर्क का सेवन मस्तिष्क के विकारों तथा मनोवह स्त्रोतों की विकृति में अत्यन्त लाभकारी है। अपस्मार (मिरगी), उन्माद (पागलपन) मूर्च्छा (COMA/कोमा), हिस्टीरिया, याददाश की कमी, दिमागी थकावट, अथवा खुशकी रहना, नींद कम आना, मानसिक अशान्ति, भ्रम बना रहना, आँखों के आगे अन्धेरा सा प्रतीत होना अथवा चक्कर आना आदि रोगों में इस अर्क को गाय के दूध के साथ मिलाकर अथवा अन्य किन्हीं उचित ओषधियों के साथ अनुपान रूप में सेवन करने से बहुत शीघ्र उत्तम लाभ होता है।

13. वायविडंग अर्क-

साफ-स्वच्छ वायविडंग 2½ सेर लेकर शाम के समय 20 सेर जल में भिगोकर सुबह के समय भवका में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकालकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2½ तोला से लेकर 10 तोला तक दिन में 2 बार सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

वायविडंग अर्क के सेवन करने से उदर कृमि रोग तथा मेदवृद्धि (मोटापा) और कफ दोष नष्ट होते हैं। स्थायी लाभ प्राप्ति हेतु इस अर्क को निरन्तर कुछ समय तक प्रयोग करें।

14. महामंजिष्ठादि अर्क-

महामंजिष्ठादि कषाय (क्वाथ) की जौकुट की हुई ओषधि (क्वाथ प्रकरण में पीछे महामान्जिष्ठादि क्वाथ देखें।) 2½ की मात्रा में लेकर शाम के समय 20 सेर पानी में भिगोकर प्रातः समय भवका में डालकर 20 बोतल अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 तोला से 10 तोला तक दिन रात में आवश्यकतानुसार 2-3 बार सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह अर्क रक्त दोष तथा चर्म विकारों, फोड़ा-फुन्सी, खाज- खुजली, कुष्ठ, विसर्प, विस्फोटक, शीतपित्त, वातरक्त आदि रोग विकारों को नष्ट करता है। इस अर्क को कुछ समय तक निरन्तर (4-6 मास) सेवन करने से कुष्ठ (लेप्रोसी) जैसा महाभयंकर रोग भी दूर होते देखा गया है।

15. मकोय अर्क-

मकोयदाना 14 सेर लेकर कपड़े की एक ढीली ढीली पोटली/थैली में भरकर 20 सेर जल में शाम के समय भिगो दें। तदुपरान्त यभवका में भरकर विधिवत् 10 बोतल अर्क निकालकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए)-2 तोला से 10 तोला तक प्रतिदिन 2-3 बार सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

मकोय अर्क के सेवन करने से बवासीर, उदर रोग, पाण्डु रोग, यकृत विकार, कामला और शोथ व ज्वर रोग आदि नष्ट होते हैं। यह अर्क, शान्ति प्रदायक तथा शक्तिवर्द्धक भी है।

16. महासुदर्शन अर्क-

महासुदर्शन का चुर्ण की ओषधियों (पीछे प्रकरण देखें। 2½ सेर जौ कुट की हुई लेकर शाम के समय सेर जल में भिगो दें। प्रातः समय भवका में डाल कर विधिवत् 20 बोतल अर्क निकाल लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2 तोला से 3 तोला तक दिन में 2-3 बार अकेला अर्क अथवा किन्ही अन्य उचित ओषधियों के अनुपान के रूप में सेवन कराए|

गुण व उपयोग-

यह अर्क विशिष्ट गुण धर्मों के कारण ख्याति प्राप्त ज्वर नाशक है। इसके सेवन करने से समस्त प्रकार के विषम ज्वर, सन्तत ज्वर, सतत ज्वर, इकतरा ज्वर, तिजारी ज्वर, चौथिया ज्वर आदि तथा रस, रक्त आदि धातुओं में लीन दोष नष्ट होकर धातु पूर्ण रूपेण शुद्ध हो जाती है, जिससे ज्वर समूल नष्ट हो जाता है। अंग्रेजी/एलोपैथिक ओषधि क्विनीन के सेवन करने से रक्त में पढ़ी हुई गर्मी के कारण कानों से कम सुनाई पड़ना (बहरापन) तथा कानों में सांय-सांय की आवाजें होना आदि उत्पन्न विकार भी महासुदर्शन अर्क के सेवन करने से शान्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त पाण्डु रोग, रक्त पित्त व रक्त विकार आदि रोगों में भी इसके सेवन से उत्तम लाभ होता है।

17. मेदोहर अर्क-

स्वस्थ/निरोगी काली गाय का सांय कपड़े से छना हुआ मूत्र 20 सेर लेकर भवका में भरकर 10 सेर अर्क खींचकर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2½ तोला से 5 खोल तक दिन में 2-3 बार 1-2 तोला शहद मिलाकर सेवन करायें।

नोट-यदि इस अर्क की मात्रा अधिक ली जायेगी अथवा शहद कम मात्रा में मिलाया जायेगा तो-सेवनकर्ता (रोगी) को व्याकुलता होने लगती है। 1-2 दस्त लग जाते हैं। पसीना आ जाता है। एवं कुछ मिनटों के लिए निर्बलता भी आ जाती है।

गुण व उपयोग-

इस (मेदोहर) अर्क के सेवन करने से मेदवृद्धि (मोटापा अधिक बढ़ जाना), बदबू युक्त पसीना आना, हृदय में पीड़ा होना, शोथ, यकृतशूल, उदरशूल, रक्त विकार, मन्द-मन्द रहने वाला ज्वर, अल्प परिश्रम करने मात्र से ही थकावट आ जाना तथा प्रमेह आदि विकार नष्ट होते हैं। मेदवृद्धि में लक्ष्मी विलास रस नारदीय अथवा चन्द्र प्रभावरी, मेदोहर विडंगादि लौह आदि के साथ इसका सेवन करना अधिक हितकर हैं।

18. शुण्ठी/सोंठ अर्क-

सोंठ 2% लेकर व जौकुट करके शाम के समय 20 सेर पानी में भिगोकर सुबह के समय भवका में डालकर 20 बोतल अर्क निकाल लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क रोगियों के लिए) 2 से 5 तोला तक अकेले ही अथवा गाय का दूध, मट्ठा या किसी अन्य उचित ओषधि/आसवारिष्ट आदि में मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

-यह अर्क (Ark) अग्नि वर्द्धक, वात और कफ नाशक है। मन्दाग्नि, अजीर्ण, अरोचक, आम दोष, अतिसार, संग्रहणी, आमवात, उदरशूल, उदररोग, आध्मान, वातव्याधि, शोथ आदि विकारों को नष्ट करता है। खाँसी तथा श्वास में भी उत्तम लाभकर है।

19. सौंफ अर्क-

साफ-स्वच्छ सौंफ 2½ सेर लेकर शाम के समय 20 सेर जल में भिगो दें और प्रातः समय नाड़िकायन्त्र यानी भवके में डालकर विधिवत् 20 बोतल अर्क खींच कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्कों के लिए) 2 तोला से 8 तोला तक दिन में 2- 3 बार यूं ही अकेले अथवा गाय के दही या मट्ठा में मिलाकर सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

संग्रहणी, अतिसार, प्रवाहिका, आमदोष, रक्तातिसार, जी मिचलाना, अरूचि, अम्लपित्त आदि विकारों में उत्तम गुणकारी है।

यह सौंफ अर्क मातदिल (यानी अनुष्ण-शीत) होने के कारण विकार शमन के साथ ही साथ पेट की गर्मी को भी शान्त करता है।

20. रक्त दोषान्तक अर्क-

नीम की अन्तर छाल, बकायन (महानीय) की छाल, कचनार की छाल, गोरख मुण्डी, जवासा, पित्त पापड़ा, लाल चन्दन का बुरादा, अनन्त मूल, शीशम का बुरादा, मजीठ, खदिर काष्ठ का बुरादा, त्रिफला, चिरायता और चोप चीनी प्रत्येक ओषध द्रव्य समान मात्रा में लेकर सभी को मिलाकर कुल 2½ सेर लेकर व जौकुट करके शाम के समय 20 सेर गर्म जल में भिगोकर व ढंक कर रख दें और प्रातः समय भवका में डालकर विधिवत 20 बोतल अर्क निकाल लें।

मात्रा व अनुपात-

 (वयस्क मात्रा) 2 तोला से 5 तोला तक 28 घण्टे में 4 बार  सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह अर्क-रक्त दोष तथा चर्म विकारों को नष्ट करने हेतु अत्यन्त ही उपयोगी है। फोड़ा-फुन्सी, खाज-खुजली, विचचिका, कुष्ठ, दाद, विसर्प, विस्फोटक, जीर्ण उपदंश जन्म रक्त विकार एवं जीर्ण पियू मेह (सूजाक) जन्म विकार, गठिया और वात रक्त आदि रोग विकार इस अर्क के सेवन करने से नष्ट होते हैं। इसके अतिरिक्त यह अर्क रक्त को शुद्ध करके बढ़ाता है, त्वचा के वर्ण/ सौन्दर्य को निखारता है। इस रक्त दोषान्तक अर्क के निरन्तर कुछ समय तक सेवन करने से शरीर कान्ति युक्त हो जाता है।

21. हरा-भरा अर्क-

रक्तचन्दन, पद्माख, खस, ताजा गिलोय, नागरमोथा, पित्त पापड़ा नीम की छाल, नीलोफर, सौंफ, कासनी बीज, कद्दू के बीज, धनियाँ, नेत्र बाला, तुलसी बील, बहेड़ा, पोस्ते की डोंडी, छोटी इलायची, मुलहठी, धमासा और मुण्डी-प्रत्येक ओषधि द्रव्य 1-1 तोला लेकर शाम के समय 8 गुणा जल में भिगो दें और सुबह के समय यथाविधि (जल से आधा परिमाण में) अर्क खींच कर निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

(वयस्क मात्रा) 6 तोला अर्क यूं ही अकेले अथवा किसी अन्य उपयुक्त ओषधि के साथ सेवन करायें।

गुण व उपयोग-

यह अर्क राजयक्ष्मा तथा उरः क्षत (छाती फटना) में असीम गुणकारी है। इसके अतिरिक्त-मूत्रदाह, औपसर्गिक पूयमेह (सूजाक) और हृदय की धड़कन के लिए भी असीम लाभकारी है तथा यह अर्क उत्तमांगो को बल भी प्रदान करता है।

22. दुग्ध अर्क-

गाय के ताजा 20 सेर दूध को भवका में डालकर 15 बोतल (विधिवत्) अर्क निकाल कर सुरक्षित रख लें।

मात्रा व अनुपात-

125 मि०लि० 250 मि०लि० आवश्यकतानुसार 24 घण्टे में 5-6 बार तक रोगी को सेवन करने हेतु परामर्शित/निर्देशित करें।

गुण व उपयोग-

इस दुग्ध अर्क (ark) के सेवन करने से उदर रोग, शोथ (सूजन) पाण्डु रोग, कामला (जाण्ड्सि) हलीयक, राजयक्षमा (ट्यूबरक्यूलासिस), जीर्ण ज्वर (क्रोनिकफीवर), खाँसी, श्वास (दया/अस्थया), रक्तपित्त, आमदोष, संग्रहणी, अतिसार आदि रोग विकारों में अति उत्तम लाभ होता है। जब रोगी की पाचकाग्नि अत्यन्त क्षीण हो तथा दूध आदि शक्ति वर्द्धक पदार्थों को पचित करने (हजम करने) की शक्ति न हो तब इस अर्क के सेवन करने से अत्यन्त लाभ होता है। दुग्ध जैसी गरिष्ठता (भारीपन) इसमें न होने के कारण यह अत्यन्त लघु (हल्का), शीघ्रपाकी, अग्निवर्द्धक और शक्तिवर्द्धक हैं।

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