Abhyarishta(अभ्यारिष्ट)-
बड़ी हरड़ का छिलका 5 सेर, मुनक्का 2½ सेर, महुआ के फूल और बायविडंग 40-40 तोला लेकर कूटने योग्य चीजों का जौकुट चूर्ण तैयार कर लें और इन ओषधियों को । मन 11 सेर 16 तोला जल में डालकर पकायें। (काढ़ा बनावें।) चौथाई जल शेष रहने पर शीतल करके छान लें। अब इसमें 8 सेर पुराना गुड़ घोल दें। बाद में – निशोथ, छोटा गोखरू, धनिया, धाय के फूल, इन्द्रायण की जड़, चव्य, सोंठ, दन्तीमूल और मोचरस-प्रत्येक 8-8 तोला लेकर प्रक्षेपार्थ मोटा चूर्ण करके इसमें डाल दें। तदुपरान्त किसी चिकने और बड़े बर्तन में डालकर सन्धान कर दें। एक महीना के बाद निकाल कर छान लें।
विशेष –
इसमें हरड़ का छिलका अत्यन्त कषाय द्रव्य होने के कारण 5 सेर गुड़ से मधुरता ठीक प्रकार से आती है तथा मधुरता की कमी के कारण अरिष्ट भी उत्तम नहीं बनता है। अतः गुड़ का परिमाण 5 सेर के स्थान पर 8 किया गया है। इससे अरिष्ट अच्छा बनता है। ऐसा हमारा निजी अनुभव है।
~मात्रा व अनुपान-
(वयस्क मात्रा)-1 तोला से 2 तोला तक दिन में 2 बार (सुबह शाम) भोजनोपरान्त समान भाग जल मिलाकर सेवन करायें।
~गुण व उपयोग -
रोग और रोगी का बल / शक्ति व रोगी की अग्नि (पाचन शक्ति) व कोष्ठ का विचार कर उचित मात्रा में इस अरिष्ट का सेवन करने से 8 प्रकार के उदर रोग और बवासीर (piles)रोग नष्ट होते हैं। यह मल-मूत्र की रुकावट को दूर करता है तथा अग्निवर्द्धक भी है।
यह अरिष्ट साधारणतया रेचक व पाचक तथा बद्धकोष्ठ (कब्जियत) को दूर करता है। इसके अतिरिक्त यह समस्त प्रकार के अर्श (बवासीर(piles)) उदर रोग, मन्दाग्नि, मूत्राघात, यकृत, गुल्म और हृदय रोगों(heart deaseases )को नष्ट करता है। स्मरण रहे कि यह जमालगोटा की तरह रेचक दस्तावर नहीं है। जमालगोटा के सेवन से जो दस्त होते हैं, उससे आंतों की क्रिया शिथिल निर्बल हो जाती है, उससे विरेचनोपरान्त आंतों में पुनः मल-संचय होने लगता है तथा उससे दूषित गैस उत्पन्न होकर अनेकों प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
जबकि अभयारिष्ट के सेवन से रोगी को जो दस्त होते हैं, उससे आँतें कमजोर नहीं होती हैं बल्कि सबल बनी रहती है। इस कारण दूषित मल-संचय नहीं होता है। इस अरिष्ट का उपयोग विशेषकर अर्श बवासीर (पाइल्स) रोग में किया जाता है। पाठक जानते ही होंगे कि बवासीर अत्याधिक कष्टप्रदायक रोग है। इससे मस्सों में रोगी को बहुत तेज दर्द होता है। इस पीड़ा को शान्त करने के लिए अर्श कुठार रस, बोल बद्ध रस, कामदुध ारस तथा सूरजवटी आदि के सेवन से किसी एक दवा का सेवन करने के उपरान्त-जब दर्द का जोर कम हो तब अभयारिष्ट का सेवन अत्यन्त ही हितकर सिद्ध होता है।
बवासीर रोग में –दस्त- कब्ज हो जाना मुख्य लक्षण है।) दस्त-कब्ज हो जाने के कारण मल त्याग के समय रोगी के जोर लगाने (कंथने) से दर्द और भी अधिक मर जाता है. वह कब्जियत इस अरिष्ट के सेवन से शीघ्र ही दूर होती है और साथ साधवन भी दूर होती है। यदि बवासीर रोग का सन्देह होते ही रोगी को अऔर साथ हवन करा दिया जाये तो यह रोग आगे न बढ़कर वही रुककर आराम हो जाता है|


उदर रोग में मन्दाग्नि एक बहुत ही भयंकर व दुखदायी रोग है। यदि मन्दाग्नि के कारण मल संचय होकर दस्त-कब्ज (बद्धकोष्ठ) का कष्ट हो गया हो तो एका भेदी रस, अश्व कुंचकीरस, आदि ओषधियों का उपयोग करना चाहिए। परन्तु इनमें जमालगोटा का मिश्रण होने से कुछ हानि होने का भी भय रहता है। अतएव अभयरिष्ट में समान भाग कुमार्यासव मिलाकर सेवन करने से रोगी को शीघ्र ही लाभ होता है। यह मल-मूत्र को साफ करके अग्नि/जठराग्नि को बढ़ाता है। उदर के रोगों को नष्ट करता है और पाचक रस की उत्पत्ति कर अन्न को पचाने की शक्ति उत्पन्न करता है।
Amritarishta(अमृतारिष्ट)
गलोय/गुर्च 5 सेर लेकर छोटे-छोटे टुकड़े कर लें तथा दशमूल की दसों ओषधियों (बेल की छाल, अरणी, अरलू की छाल, गम्भारी की छाल, पाढ़ल की छाल, शालिपर्णी, पृश्निवर्णी, छोटी और बड़ी कटेली तथा गोखरू) भी 5 सेर लेकर जौ कुट करके इनको 2 मन 22 सेर 32 तोला जल में डालकर क्वाथ बनायें जब 28% सेर 8 तोला जल शेष रहे तब उतार-छान कर इस क्वाथ में 5 सेर पुराना गुड़ लेकर घोल दें,
और बाद में-धाय के फूल 32 तोला, सफेद जीरा 64 तोला पित्त पापड़ा 8 तोला तथा सप्तपर्ण की छाल, सोंठ, मिर्च, पीपल, नागर मोथा, नागकेशर, कुटकी, अतीस और इन्द्र जौ-प्रत्येक 4-4 तोला लेकर प्रक्षेपार्थ चूर्ण बनाकर क्वाथ में डाल दें तथा इस क्वाथ को किसी चिकने पात्र में डालकर सन्धान कर दें और । महीना के बाद छानकर काम में लावें।
विशेष –
इस योग में द्रव द्वैगुण्य परिभाषा के अनुसार पानी का परिमाण द्विगुण लिया गया है तथा मूल पाठ में धायफूल न होने से सन्धान क्रिया ठीक प्रकार से नहीं हो पाती है। अतः यहाँ हमने 32 तोला धाय के फूल बढ़ाये हैं। इस प्रकार से इसको बनाना उत्तम रहता है, यह स्वानुभव है।
~मात्रा व अनुपान-
(वयस्कों के लिए) सवा तोला से 2½ तोला एक समान भाग जल मिलाकर दिन में 2 बार (सुबह शाम) भोजनोपरान्त सेव करें।
~गुण व उपयोग-
अमृतारिष्ट के सेवन करने से पुराने ज्वर (fever) के कारण आयी हुई निर्बलता, विषम ज्वर (सतत्, सन्तत-1 दिन, 2 दिन, 3 दिन के बाद में आने वाला ज्वर) रस, रक्त आद धातुगत ज्वर, प्लीहा व यकृत जन्य ज्वर, पाण्डु, कामला एवं बार-बार छूटकर होने वाले ज्वर नष्ट होते हैं। अधिक दिनों तक जाड़ा लगकर आने वाले ज्वरों में-यकृत प्लीहा की वृद्धि हो जाने के कारण ज्वर का प्रकोप हो जाता बालधा मन्दाग्नि, क्षुधानाश, रक्ताल्पता व दुर्बलता आदि लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। ऐसी दशा में अमृतारिष्ट वाकई अमृत के ही सदृश लाभ दायक गुण करता है। (अमृतारिष्ट के सेवन काल के साथ ही ऐसी अवस्था में महासुदर्शन चूर्ण का भी उपयोग करना चाहिए, इससे रोगी अतिशीघ्र निरोग हो जाता है।)
~चूँकि अमृतारिष्ट में-गिलोय की प्रधानता है। अतः इसमें गिलोय के गुण भी अधिक पाये जाते हैं। इसलिए मूत्राशय की कमजोरी के कारण बार-बार मूत्र त्याग करने का कष्ट हो गया हो तो अमृतारिष्ट का सेवन उसको भी दूर करता है।
~ सूजाक व उपदंश रोगों में भी अमृतारिष्ट सौम्य और रक्त शोधक गुण युक्त होने के कारण अत्यन्त ही लाभकर है।
~ जीर्ण ज्वर (पुराना ज्वर) के कारण रोगी को मन्दाग्नि हो जाती है, जिससे रस, रक्त आदि धातुएँ ठीक व उचित परिमाण/मात्रा में नहीं बनती हैं। अतएव शरीर में रक्त की कमी हो जाने के कारण शरीर पीला हो जाता है। यकृत प्लीहा की वृद्धि हो जाने से पित्त का स्त्राव अच्छी प्रकार से नहीं हो पाता है, जिसके कारण पेट में दर्द, अन्न का न पचना, पेट में आवाज होना, वायु का संचार न होना आदि उपद्रव हो जाते हैं और पतले दस्त भी आने लगते हैं। ऐसी अवस्था में अमृतारिष्ट के सेवन से शीघ्र ही लाभ होता है।
(क्योंकि उस अरिष्ट का प्रभाव सर्वप्रथम आमाशय पर होता है। यह पाचक पित्त को उत्तेजित करके पाचन क्रिया को ठीक करता है और भूख की वृद्धि करता है तथा साथ ही रंजक पित्त को भी जाग्रत करके लाल रक्त वाणों की वृद्धि करते हुए शरीर की कान्ति अच्छी कर देता है और यकृत, प्लीहा की वृद्धि को रोककर उसे निरोग कर देता है।
~प्रसूत ज्वर(fever) में भी योग्य वैद्यो द्वारा इसका सफल प्रयोग किया जाता है। यद्यपि प्रसूत ज्वर में दशमूलारिष्ट का प्रयोग करना अधिक लाभकर है, फिर भी पित्त प्रधान प्रसूत ज्वर में (जिसमें रोगिणी की हथेलियों, तलुवों में जलन हो, पेट में दाह, प्यास अधिक कभी-कभी चक्कर आने लगना, ज्वर की गर्मी बढ़ी हुई रहना, शीतल पदार्थों से विशेष प्रेम) इसके प्रयोग से रोगिणी को खूब अच्छा लाभ होता है।
(क्योंकि यह पित्त शामक व पौष्टिक भी है तथा ज्वरहनता तो इसका प्रधान गुण ही है।) इसके साथ में सूतिका विनोद रस अथवा प्रतापलंकेश्वर रस आदि का भी आदि उचित उपयोग किया जाये तो रोगिणी का विशेष उपकार होता है। सौम्य होने से रस, रक्त आदि धातुओं में किसी भी कारण से बढ़ी हुई उष्णता को अमृतारिष्ट नष्ट करता है तथा जीर्ण ज्वर को जड़-मूल से ही नष्ट कर देता है।